※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

सत्संग की मार्मिक बातें


घर में त्याग का व्यवहार एवं अतिथि सेवा की महिमा से

       राजा युधिष्ठर ने यज्ञ किया था ! उसकी भूरी-भूरी  प्रशंसा हुई ! उस जगह एक नेवला आया ! उसने मनुष्यकी बोली में बोलकर कहा--आपको अति प्रशंसा नहीं करनी चाहीये ! मैंने एक ऐसा यज्ञ देखा है, वैसा यहाँ हुआ ही नहीं ! उसने एक शिलोज्छ्वृति- वाले बाह्मणकीकथा कही ! यह कथा अश्वमेघपर्वमें आती है ! उसमें नियम था की अतिथि को भोजन देकर ही भोजन करना है ! कई दिन हो गये ! अन्न नहीं मिला ! शिलोज्छ्वृति उसको कहते है कि खेत में अन्न बिखरा हुआ रहता है ! किसान के ले जाने के बाद जो बचे वह ब्राह्मणों का है ! सात दिन तक ब्राह्मणों को खाने को कुछ नहीं मिला ! सातवें दिन थोड़ा जो मिला, उसको पीसकर सत्तू बनाया ! भोजन कि तैयारी की लगभग एक सैर अन्न था ! बाहर निकले देखा एक बुढा ब्राह्मण खड़ा है ! उससें पूछा तो उसने भोजन करना स्वीकार कर लिया ! उनकेसामने थाली रख दी, उतने से वह तृप्त नहीं हुआ !स्त्री के आग्रह करने पर उसके हिस्से का भी दे दिया, फिर भी ब्राह्मण देवता तृप्त नहीं हुए, लडके ने देने का आग्रह किया, उसका हिस्सा भी दे दिया, इस प्रकार चारों  हिस्से का भोजन वह ब्राह्मण देवता कर गये ! वे ब्राह्मण देवता साक्षात् धर्मराज थे ! वे प्रकट हो गये, उन्होंने कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ ! तुम मेरे साथ परम-धाम को चलो ! वे सब परम-धाम चले गये ! उस थाली में ब्राह्मण देवता में चुल्लू किया था ! उसमें मैं लौटा तो मेरा आधा शरीर सोने का हो गया ! उसी अभिलाषा से मैं यहाँ लोटा, ताकि मेरा बाकी शरीर भी सोने का हो जाय, परन्तु मेरे कीचड़ लग गया ! यह अतिथि सेवा का माहात्म्य है ! अतिथि सेवा भी महायज्ञ है ! सबसें प्रार्थना है कि सबके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए ! भगवान् कहते हैं------------
 ये यथा मां प्रपध्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम !
 मम   वर्त्मानुवर्तन्ते  मनुष्या:  पार्थ  सर्वश: !!

  हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं !

       जो मनुष्य जिस बात को लेकर मेरी शरण आते हैं, मैं उनको वही चीज प्रदान करता हूँ ! दूसरा भाव जो जिस भावसे भजता है, उसके साथ मैं वैसा ही व्यवहार करता हूँ, कोई स्वामिभाव से, कोई वात्सल्य भावसे, कोई किसी भी भाव से मुझे भजता है, उसी तरह उसके भाव के अनुसार मैं बन जाता हूँ ! तीसरी बात जिस प्रकार जो मेरे को भजता है, मैं उसको उसी तरह भजता हूँ ! जो मेरे को चाहता है, मैं उसको चाहता हूँ ! जो मेरा ध्यान करता है, मैं उसका ध्यान करता हूँ ! सीताजी विरह में व्याकुल है, इसलिए भगवान् भी व्याकुल हैं ! भीष्मजी ध्यान करते हैं, इसलिये भगवान् भी ध्यान करते हैं !

       युधिष्ठर ने पूछा कि आप किसका ध्यान करते हैं ! भगवान् ने कहा कि शरशय्या पर पड़े भीष्मपितामह मेरा ध्यान कर रहे हैं, इसलिये मैं भी उनका ध्यान कर रहा हूँ !

         जो मुझे अपने हृदय में बसा लेता है, मैं भी उसे अपने हृदय में बसा लेता हूँ ! लक्ष्मीजी ने अपने हृदय में भगवान् विष्णु को बसा रखा है, इसलिये विष्णुभगवान् ने अपने हृदय में लक्ष्मीजी बसा रखा है ! उनके हृदय पर इसलिये लक्ष्मीजी का चिह्न है !


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ A ,गीता प्रेस गोरखपुर ]