※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

आत्म बल की आवस्यकता

   आत्म बल की आवस्यकता 

साधन करने की जरुरत है | सत्संग से यह लाभ है की निराशा नहीं आती | निराशा ही मृत्यु है | रोगी आदमी वैध से सुनकर, पुस्तको से पढ़कर यह समजह लेता है की यह कुपथ्य है, फिर भी आसक्ति के कारण कुपथ्य कर लेता है | इसी प्रकार साधक परमात्मा के प्राप्ति के मार्ग में जितने कुपथ्य समझता है उसको उसमे आसक्ति के कारण, अज्ञान के कारण स्वीकार कर लेता है |
हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रिय यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात हर लेती है | (गीता २/६०)
समझदार  है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है, परन्तु प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रिय उसके मन को बलात हर लेती है | इसलिए भगवान् बताते है
- साधक को चाहिए के वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समहित्चित हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ; क्युकी जिस पुरुष के इन्द्रिय वश     में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर  हो जाती है | विषयों से इन्द्रियों को हटा कर मेरे परायण हो जाये |(गीता २/६१)
साधन अवस्था में जो विचारशील बुद्धिवाला है,वह स्थितप्रज्ञ  नहीं है | उसकी बुद्धि विवेक शील है | यह विवेक है की मान नहीं चाहता , मान को विष के सामान समझता है, अपमान को अमृत के सामान समझना, यह ठीक मालूम पडता है | पर जब ये आकार प्राप्त हो तो अधिक प्रिय लगने लग जाये, वह स्तिथप्रज्ञ  नहीं है | कुछ विवेकशील तो  है | जो विचार,विवेक है,उसके उपर खूब जोर डालना चाहिए | बुद्धि के द्वारा अच्छी तरह प्रयास करे तो यह भी विशेष सहायक है |

यह बात ऐसी है, इस पर डटा रहे | जैसे भक्ति के मार्ग में इश्वर के उपर निर्भर रहना, ईश्वर के अस्तित्व पर जितना जोर दिया जाये ,उतना उसकी बुद्धि   में धीरता ,वीरता आएगी | भगवान् है इस पर विश्वास करे , इसमें कोई शंका नहीं | यह बड़े काम की चीज है | स्थिर बुद्धि में इससे सहायता मिलेगी | हमारे में आत्मबल नहीं है , जिसके कारण हम जिस बात को छोड़ना चाहे ,उसको छोड़ नहीं पाते और जिसको ग्रहण करना चाहे, उसको ग्रहण नही कर पाते |

आत्मबल के लिए श्रद्धा   की आवश्यकता है | यदि हमारी मान्यता,समझ ,ज्ञान डरद  हो जाये तो काम सिद्ध  हो जाता है |     हमे विश्वाश हो जाये की इस वन में बाघ रहता है तो हम उस वन में नहीं जाते | अमुक वास्तु में विष है तो वस्तु नहीं खाते, अमुक जगह खतरा है तो वह नहीं जाते | जब हमे श्रद्धा विश्वाश हो जायेगा तो हम कुपथ्य का सेवन नहीं करेंगे | विश्वाश से आत्मबल बढेगा | इश्वर में जितनी श्रद्धा बढेगी ,उतना वह परमात्मा के निकट पहुचेगा | परलोक , महात्मा में जितना विश्वाश होगा, उतना साधन तेज होगा | गीता के वकाहं इथ्म्भूत  है, सत्य है , इनको एकदम सत्य मान्कर चले तोह आत्मबल बढेगा |

शास्त्र गीता  आदि, महापुरुष ,इश्वर और परलोक यानि मरने के बाद आत्मा का होना - इन चारो में से किसी एक में विश्वास हो तो आत्मबल बढेगा |