※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 6 अगस्त 2012

शिक्षाप्रद पत्र-२९


                    सादर हरिस्मरण पूर्वक प्रणाम ! आपका पत्र यथासमय मिल गया था ! उत्तर देने में समयाभाव के कारण विलम्ब हो गया, सो आपको किसी भी प्रकार का विचार नहीं करना चाहीये ! मेरे पत्र को पढकर आपको जो प्रसन्नता होती है, इसमें मेरी कोई विशेषता नहीं है !आपके प्रेम भाव और प्रभु की कृपा से ही ऐसा होता है ! आपके प्रश्र्नो का उत्तर इस प्रकार है----

    पूर्व जन्मोंके कर्म दो प्रकार के होते हैं--एक `संचित दूसरे प्रारब्ध` ! `संचित कर्म` उन कर्मों को कहते हैं जिनका फल वर्तमान जन्म के लिए निश्चित नहीं होता है, अत; उनका नाश करने में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है ! निष्काम कर्म और उपासना के द्वारा उनका नाश बड़ी सुगमता से किया जा सकता है !

    `प्रारब्ध-कर्म` उन कर्मों को कहते हैं जिनके फल स्वरुप वर्तमान शारीर मिला है एवं जिनके अनुसार सुख दू:ख प्रद अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थ, व्यक्तियों और परिस्थितियों का संयोंग-वियोग निश्चित कर दिया गया है ! इस विषय में उनकी अवश्य ही प्रधानता है !वर्तमान में हम जो अच्छे या बुरे कर्म करेंगे, उनमे से कोई कोई उग्र कर्म तो तत्काल प्रारब्ध बनकर प्रारब्ध में सम्मिलित हो जाता है ! शेष सब संचित कर्मों के साथ सम्मिलित हो जाता है ! इस प्रकार यह कर्म चक्र चलता रहता है !

      भगवान् का भजन स्मरण इस लिये करना चाहीये कि संचित कर्म भष्म हो जाए, फिर इस दू:खमय संसार में न आना पड़े ! नहीं तो, मरने के बाद शूकर-कूकर आदि चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा ! वर्तमान जन्म में भगवान् पर निर्भर होकर भजन-स्मरण करने से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि घर में दरिद्रता.वस्तुओं का अभाव, शरीर में बीमारी,अपमान,निन्दा आदि प्रतिकूल घटनाओं के प्राप्त होने पर भी वह हमारी शान्ति को भंग नहीं कर सकेगी ! हमारे लिये अनुकूलता और प्रतिकूलता सामान हो सकती है ! ऐसा हो जाने पर हमें कर्म के फल को बदलने कि कोई आवश्यकता नहीं रहती, हमारा हृदय निरंतर प्रभु के प्रेम से भरा रह सकता है ! इससे बढ़कर इस मनुष्य जीवन का और लाभ हो ही क्या सकता है !

       निष्काम-कर्म और ईश्वर भक्ति कभी भी बंधनकारक नहीं होते ! निष्काम भाव से केवल भगवान् के आज्ञापालन के रूप में, उन्ही कि प्रसन्नता के लिये जो दूसरे देवताओं कि पूजा कि जाती है और उसके बदले में उनसे किसी भी प्रकार के फल कि आशा नहीं कि जाती,वह तो भगवान् कि ही पूजा है ! उसका फल तो वही होगा जो भगवान् कि पूजा भक्ति का होता है !
 `भगवान् कि शरणागति किसको कहते हैं` इसका विस्तार युक्त लेख मेरे द्वारा लिखित तत्वचिंतामणि नामक पुस्तकमें देख सकते हैं ! पत्र में कहाँ तक लिखा जाय ! ईश्वर कि पूर्णतया शरण हो जानेवाला न तो किसी भी परिस्थिति में घबराता है, न संसारी लोगों से मदद मांगता है, वह तो सदा के लिये निर्भय और निश्चिन्त हो जाता है !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]