※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

शिक्षाप्रद पत्र-४९


   सादर हरिस्मरण ! आपका कार्ड मिला, समाचार विदित हुए !

           १--मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार-यह चार भेद अंत:करण के माने गए हैं ! मनका काम मनन करना और सकल्प-विकल्प है ! बुद्धि का काम निर्णय करना और निश्चय करना है ! चित्त का काम चिंतन करना है ! अहंकार का काम अपना और पराया मानना है ! पहले संकल्प-विकल्प होता है, इसमे मन का सम्बद्ध इन्द्रियों से रहता है ! मनन में इन्द्रियों से संबंध टूट जाता है, तब चित्त से सम्बद्ध होकर मनन चिंतन का रूप धारण कर लेता है, उस समय मन और चित्त कि एकता हो जाती है ! उसके बाद जब इसका सम्बन्ध बुद्धि से हो जाता है, तब बुद्धि द्वारा पहले विवेचन, फिर निर्णय और निश्चय होकर एकाग्र वृत्ति रूप ध्यान होता है ! अहंकार का सम्बन्ध सब अवस्थाओं में रहता है !

         २--श्रद्धा में विवेचन नहीं होता, मान्यता होती है ! निश्चय विवेचन और निर्णय पूर्वक होता है ! अन्तमें दोनों एक हो जाते हैं ! अपने-अपने स्थान में दोनों ही उच्च श्रेणी के होते हैं !यह शारीर आत्मा नहीं है, तो भी जो प्राणी इसीको अपना स्वरुप मानता रहता है, उसका यह गलत विश्र्वास है ! जो विवेचन पूर्वक निश्चय किया जाता है, उसमें ऐसे विश्र्वास को स्थान नहीं है, किन्तु यदि मन इन्द्रियों के ज्ञान का प्रभाव बुद्धि पर पद जाए तो उस बुद्धि द्वारा किया हुवा निर्णय और निश्चय भी निम्रश्रेणी का ही होता है इस प्रकार विश्र्वास और निश्चय का भेद और परस्पर का सम्बन्ध समझना चाहीये !

         ३--`संशय` संदेह को कहते हैं ! यह मन और बुद्धि दोनों में ही रहता है ! इन्द्रियों में ही इसका निवास है ! कार्य में यह सफल नहीं होने देता और कर्तव्य में प्रवृति नहीं होने देता ! इसके नाश का उपाय विवेक और विश्र्वास है ! विश्र्वास का ही दूसरा नाम उस समय श्रद्धा हो जाता है, जब पूज्य भाव और भक्ति पूर्वक होता है !

         ४-- भगवान् कि दया तो सब पर समान है ! उनकी कृपा से ही मनुष्य को विवेक मिला है ! सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, हवा,पानी प्राणी मात्र को भगवान् की दया से ही यथावश्यक सुख प्रदान कर रहें है ! पर मनुष्य न तो उनकी कृपा का आदर करता है,न अपने ज्ञान का ही !इतना ही नहीं , उस करुणा-वरुणालय पर श्रद्दधा भी नहीं करता, और तो क्या, उनको अपना परम हितैषी भी नहीं मानता ! तब उनकी अपार दया का रहस्य इसकी समझ में कैसे आये ? जो साधक उनके सुहृदयतापूर्ण स्वभाव की और देखकर सब प्रकार से उनका हो जाता है,
अपने आपको उनकी गोद में बैठा देता है, सर्वथा उन पर निर्भर होकर सदा के लिये निर्भय और निश्चिन्त हो जाता है, वही धन्य है !
उसी ने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाया,उसके व्यवहार में वर्णाश्रम-धर्म रहता है, पर उसका सम्बन्ध एक मात्र अपने परमाधार भगवान् से ही रहता है ! उसका समस्त व्यवहार भगवत्कृपा से प्राप्त विवेक शक्ति और वस्तुओं  द्वारा भगवान् के विधानानुसार नाट्यशाला के स्वाँग की भक्ति उन प्रेमास्पद की प्रसन्नता के लिये ही होता है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]