अब आगे.......
३७ रागद्वेषरूपी द्वंद्व मोह से उत्पन्न होता है, जितने द्वंद्व है उनसे सारे प्राणी मोहित हो रहे हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है ।
३८ जैसे स्त्री का विवाह एक बार होता है, इसी तरह करोड़ों जन्मोंमें एक बार मनुष्य जन्म मिलता है ।
३९ समयको अमूल्य समझना चाहिये, एक पल भी वृथा नहीं खोना चाहिये । साधन ही अपना जीवन है, अपना प्राण है ।
४० निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपसमें मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं । उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रीतिपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं । गीता १०।९-१० को समझकर उसके अनुसार साधन करना चाहिये ।
४१ स्वाद, शौकीनी, ऐश, आराम इनमें कौन बलवान है, प्रधान है । स्वाद-आराम दोनों ही बलवान हैं । बलवान तो स्वाद है पर आराम का त्याग बहुत कठिन है । किसी प्रकार से शरीर का आराम नहीं चाहे तो बहुत शीघ्र सुधार हो सकता है । आराम रात-दिन मनुष्य को जकड कर रखता है ।
स्वाद का काम बहुत थोड़े समय पड़ता है । आराम में `आ` `राम` करने से जल्दी सुधार हो सकता है । पदच्छेद करने से ही असली आराम मिलेगा । परमात्मा के स्वरुप में जो विश्राम है वही आराम है ।
४२ मनके भीतर दो ही उपाधि है आलस्य और विक्षेप, और जितनी उपाधि बतलाई गयी है वह सब गौण है ।
४३ मूढ़वृत्ति कहो या निद्रा कहो एक ही बात है । विक्षेप, चंचलता, व्यर्थ बैटन का चिन्तन, जब-जब मन दूसरी जगह जाय तब-तन इसे विचार के द्वारा वहाँ से हटाये । जब-जब मन जाय तब-तन सम्हाल करे । मन ज्यादा दो ही जगह मिलेगा या तो स्वार्थ में या प्रमाद में । व्यर्थ चेष्टा का नाम प्रमाद है । स्वार्थ से भोग है । स्वार्थ शरीर, स्त्री या भोगों के संग्रह में मिलेगा ।
प्रमाद-व्यर्थ चेष्टा । किसी गधे को याद कर लिया, किसी विदेश को याद कर लिया, जिससे अपना सम्बन्ध नहीं है । वह तो तुरंत हटाया जा सकता है । मनको इस प्रकार समझाना चाहिये कि इसमें अपना कोई भी कार्य नहीं है । तू किसी भी चीज में चला जाता है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । लेना-देना भी नहीं है । किसीका गुण-अवगुण देखने लग गया । इस प्रकार विचार करने से तुरंत सुधार हो सकता है । नींद आये तो खड़ा हो जाय या आसन द्वारा उसे रोके ।
४४ यह भोग तो सारी योनियों में हैं । अपने जीवनको इसमें क्यों नष्ट कर रहे हो ? यह आनन्द भगवान् के आनन्द के सामने एक बूंद के बराबर भी नहीं है ।
४५ गीता का अभ्यास स्वयं करना चाहिये और लोगों से कहना चाहिये ताकि सब भाई इससे लाभ उठायें । स्वयं भी उठाये और लोग भी उठायें ।
४६ सब जीवोंका परम हित हो---यह भाव बहुत लाभ पहुँचाने वाला है ।
३८ जैसे स्त्री का विवाह एक बार होता है, इसी तरह करोड़ों जन्मोंमें एक बार मनुष्य जन्म मिलता है ।
३९ समयको अमूल्य समझना चाहिये, एक पल भी वृथा नहीं खोना चाहिये । साधन ही अपना जीवन है, अपना प्राण है ।
४० निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपसमें मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं । उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रीतिपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं । गीता १०।९-१० को समझकर उसके अनुसार साधन करना चाहिये ।
४१ स्वाद, शौकीनी, ऐश, आराम इनमें कौन बलवान है, प्रधान है । स्वाद-आराम दोनों ही बलवान हैं । बलवान तो स्वाद है पर आराम का त्याग बहुत कठिन है । किसी प्रकार से शरीर का आराम नहीं चाहे तो बहुत शीघ्र सुधार हो सकता है । आराम रात-दिन मनुष्य को जकड कर रखता है ।
स्वाद का काम बहुत थोड़े समय पड़ता है । आराम में `आ` `राम` करने से जल्दी सुधार हो सकता है । पदच्छेद करने से ही असली आराम मिलेगा । परमात्मा के स्वरुप में जो विश्राम है वही आराम है ।
४२ मनके भीतर दो ही उपाधि है आलस्य और विक्षेप, और जितनी उपाधि बतलाई गयी है वह सब गौण है ।
४३ मूढ़वृत्ति कहो या निद्रा कहो एक ही बात है । विक्षेप, चंचलता, व्यर्थ बैटन का चिन्तन, जब-जब मन दूसरी जगह जाय तब-तन इसे विचार के द्वारा वहाँ से हटाये । जब-जब मन जाय तब-तन सम्हाल करे । मन ज्यादा दो ही जगह मिलेगा या तो स्वार्थ में या प्रमाद में । व्यर्थ चेष्टा का नाम प्रमाद है । स्वार्थ से भोग है । स्वार्थ शरीर, स्त्री या भोगों के संग्रह में मिलेगा ।
प्रमाद-व्यर्थ चेष्टा । किसी गधे को याद कर लिया, किसी विदेश को याद कर लिया, जिससे अपना सम्बन्ध नहीं है । वह तो तुरंत हटाया जा सकता है । मनको इस प्रकार समझाना चाहिये कि इसमें अपना कोई भी कार्य नहीं है । तू किसी भी चीज में चला जाता है जिससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । लेना-देना भी नहीं है । किसीका गुण-अवगुण देखने लग गया । इस प्रकार विचार करने से तुरंत सुधार हो सकता है । नींद आये तो खड़ा हो जाय या आसन द्वारा उसे रोके ।
४४ यह भोग तो सारी योनियों में हैं । अपने जीवनको इसमें क्यों नष्ट कर रहे हो ? यह आनन्द भगवान् के आनन्द के सामने एक बूंद के बराबर भी नहीं है ।
४५ गीता का अभ्यास स्वयं करना चाहिये और लोगों से कहना चाहिये ताकि सब भाई इससे लाभ उठायें । स्वयं भी उठाये और लोग भी उठायें ।
४६ सब जीवोंका परम हित हो---यह भाव बहुत लाभ पहुँचाने वाला है ।
शेष अगले ब्लॉग में.........
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]