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* दूसरों का परम हित हो, गीता का अभ्यास, भजन,ध्यान, ये बातें निष्काम भाव से हों । इनसे बहुत अधिक, बहुत शीघ्र लाभ होगा । आपलोगों में निष्काम भाव कि कमी है ।
* सकाम भाव के कुछ उदाहरण इस प्रकार है----
१ भला करने वाले का भला करना ।
२ उसका भला करना जिससें आप बदले में अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं ।
३ भविष्य में उससे कुछ आशा रखना ।
४ परोपकार करने से लोकमें अपनी प्रशंसा होगी, मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा मिलेगी ।
५ हम किसी का भी भला करेंगे तो परमात्मा हमारा भला करेंगे ।
६ अच्छा काम करके दूसरों को गिनाते तो नहीं हैं, पर दुसरे आदमी आपकी बड़ाई कर दें तो आप उससे प्रसन्न हो जायँ तो यह भी सकामभाव हुआ ।
७ चाहे जिस प्रकारसे लाभ उठा लिया सब सकाम है ।
* सबसे ऊँची बात यह है कि यह जो भी कुछ काम हुआ है वह भगवान् का ही है । कठपुतली को जमूरा जमूरा जैसे नचाता है, वह उसी प्रकार नाचती है, इसी प्रकार स्वयंको भगवान् कि कठपुतली समझ लेवें । कठपुतली का तमाशा दिखाने वाले कि जगह भगवान् को कर दें और स्वयं कठपुतली कि जगह हो जायँ ।
* भगवान् हमें निमित्त बनाकर काम करा रहे हैं, हमारी क्या सामर्थ्य है । अपने को किसी भी प्रकार भी अच्छे काममें हेतु नहीं माने, इसका नाम निष्काम है ।
* साधन के लिये जोश पैदा हो इस विषय में कड़ी आलोचना करने के लिये कितने भाइयों कि राय है । कड़ी आलोचना लाभदायक भी होती है, कहीं-कहीं नुकसानदायक है । किसी आदमी को लेकर कहा जाय तो उस जगह अधिक अंश में हानि होती है । अधिकांश में लाभ है । अपने अवगुणों को सुनकर प्रसन्नता हो ऐसा व्यक्ति लाखों-करोडो में कोई एक ही होता है । प्राय: हम लोगों को अवगुण तो निकालना ही नहीं है । विचार के द्वारा चाहते हैं कि अपने आप ही निकल जाय । पर्दाफास न हो और अवगुण निकल जाय ।
* बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि अन्तकाल में जप करते हुए जाने से कल्याण हो जायगा; परन्तु अन्तकाल में याद आने के लिये जैसा साधन चाहिये उसकी तरफ ख्याल किया जाय तो अन्धेर है ।
* यदि खूब सोचकर देखा जाय तो यह मालूम देता है कि हमलोगों ने राजसी-तामसी सुखको परमेश्वर से बढ़कर समझ रखा है । इसे त्यागकर यदि परमेश्वर सुख समझ में आ जाय तो चाहे लाख काम बिगड़ो कुछ चिन्ता नहीं है ।
* रुपयों में आपने मन इस प्रकार लगा दिया है कि उसे आप छोड़ना नहीं चाहते, परमात्मदेव कि प्राप्ति का महत्त्व कुछ नहीं समझते, यदि समझते तो रुपयों को कुछ भी महत्त्व नहीं देते । मन-इन्द्रियों का संयम करके उन्हें परमात्मा कि तरफ लगाना चाहिये ।
* मन-इन्द्रियों को वश में करने का उपाय- संसार में दोषदृष्टि और दुःखदृष्टि करनी चाहिये, मन, इन्द्रियाँ, और बुद्धि का संयम करना चाहिये तथा इन्द्रियों और मन को विषयों से हटाकर परमेश्वर में लगाना चाहिये । दूसरा उपाय यह है-प्रेम के द्वारा भी इन्द्रियाँ परमेश्वर में तन्मय हो सकती है । वह प्रेमका मार्ग ऐसा है उससे सारी इन्द्रियाँ प्रेममें मुग्ध हो जाती है ।
* परमात्मा के नाम, रूप, गुण, लीलाका चिन्तन करने से संसार के सारे भोग रसहीन हो जाते हैं । उनमें एक आकर्षण शक्ति है । जबतक वह ध्यान नहीं होता है तभी तक उसके लिये चेष्टा नहीं होती है
* या तो भक्ति के लिये कोशिश करनी चाहिये या संयम-द्वारा इन्द्रियोंको वशमें करनेकी कोशिश करनी चाहिये ।
शेष अगले ब्लॉग में........
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]