※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 16 सितंबर 2012

महत्त्वपूर्ण बातें



अब आगे.........

 इन्द्रियाँ विषयों में रम रही हैं,उनमें आनन्द आ रहा है, इसलिये इन्द्रियाँ, मन उन्हें   छोड़ना नहीं चाहते यही कारण है कि हम विषयों को नहीं त्याग पाते विचारना चाहिये फिर मनुष्यों और पशुओं में अन्तर क्या ही क्या है पशु खाते हैं हम भी खाते हैं, जैसे पशुओं का भोजन है वैसा ही हमारा भोजन है यह स्वाद तो हम असंख्य जन्मों में जायेंगे तो भी मिलेगा

 हमलोग मरने के बाद किस योनी में जायेंगे यह पता नहीं है हमको विचार करना चाहिये कि मनुष्य परिमित है जीव अनन्त हैं यह बात समझकर भी गफलत क्यों है ?

 हमलोग किसी कारण से साधन नहीं कर पायेंगे तो कैसी हालत होगी यह जो मैथुन का आनन्द है इसके हिसाब से तो कुत्ते हमारे से अच्छे हुए

 विचार करके देखो हमें जो सुख मिठाई में मिलता है, वह सुख तो विष्ठा के कीड़ों को भी विष्ठा में मिलता है

मनुष्य शरीर पाकर कल्याण नहीं किया तथा भगवान् को प्राप्त नहीं किया तो बड़ी दुर्गति होगी

 जिस प्रकार आप लोग समय बिता रहे हैं , उस प्रकार अन्तकाल आ जायगा तो फिर सदा के लिये रोते रह जायेंगे

 संसार में अनन्त बार प्रलय हो गयी, हम लोग सदा से चले आते हैं, अब तक हमारा उद्धार नहीं हुआ इस प्रकार आते-जाते हमारी हालत क्या होगी

 पूर्व में हम लोग कितनी बार मनुष्य हुए हैं, कुछ पता नहीं है उसका जन्म लेना सफल है जो जिस काम के लिये आया है उसे कर चुका हो

 परमात्मा की प्राप्ति का सारे जीवों को अधिकार है और जगह इसकी गुंजाईश नहीं है, इसलिये मनुष्य पर लागू पड़ती है जिसे मनुष्य की योनी मिली है उसे भगवान् ने मौका दिया है भगवान् कहते हैं—मुझमे मन लगनेवाले का मैं शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ यह संसार मृत्यु का समुद्र है जैसे जलके कणों की गणना नहीं हैं, वैसे ही जीवों की गणना नहीं है (गीता १२७)

 भगवान् में चित्त को न लगाकर भोगों में मन लगाने में कारण एक तो मूढ़ता है, एक अविश्वास है लोग उन्मत्त से हो रहे है, इसलिये लोगों कि दुर्दशा हो रही है

शेष अगले ब्लॉग में.....



नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]