अब आगे.........
→ इन्द्रियाँ विषयों में रम रही हैं,उनमें आनन्द आ रहा है, इसलिये इन्द्रियाँ, मन उन्हें छोड़ना नहीं चाहते । यही कारण है कि हम विषयों को नहीं त्याग पाते । विचारना चाहिये फिर मनुष्यों और पशुओं में अन्तर क्या ही क्या है । पशु खाते हैं हम भी खाते हैं, जैसे पशुओं का भोजन है वैसा ही हमारा भोजन है । यह स्वाद तो हम असंख्य जन्मों में जायेंगे तो भी मिलेगा ।
→ हमलोग मरने के बाद किस योनी में जायेंगे यह पता नहीं है । हमको विचार करना चाहिये कि मनुष्य परिमित है जीव अनन्त हैं । यह बात समझकर भी गफलत क्यों है ?
→ हमलोग किसी कारण से साधन नहीं कर पायेंगे तो कैसी हालत होगी । यह जो मैथुन का आनन्द है इसके हिसाब से तो कुत्ते हमारे से अच्छे हुए ।
→ विचार करके देखो हमें जो सुख मिठाई में मिलता है, वह सुख तो विष्ठा के कीड़ों को भी विष्ठा में मिलता है ।
→मनुष्य शरीर पाकर कल्याण नहीं किया तथा भगवान् को प्राप्त नहीं किया तो बड़ी दुर्गति होगी ।
→ जिस प्रकार आप लोग समय बिता रहे हैं , उस प्रकार अन्तकाल आ जायगा तो फिर सदा के लिये रोते रह जायेंगे ।
→ संसार में अनन्त बार प्रलय हो गयी, हम लोग सदा से चले आते हैं, अब तक हमारा उद्धार नहीं हुआ । इस प्रकार आते-जाते हमारी हालत क्या होगी ।
→ पूर्व में हम लोग कितनी बार मनुष्य हुए हैं, कुछ पता नहीं है । उसका जन्म लेना सफल है जो जिस काम के लिये आया है उसे कर चुका हो ।
→ परमात्मा की प्राप्ति का सारे जीवों को अधिकार है । और जगह इसकी गुंजाईश नहीं है, इसलिये मनुष्य पर लागू पड़ती है । जिसे मनुष्य की योनी मिली है उसे भगवान् ने मौका दिया है । भगवान् कहते हैं—मुझमे मन लगनेवाले का मैं शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ । यह संसार मृत्यु का समुद्र है । जैसे जलके कणों की गणना नहीं हैं, वैसे ही जीवों की गणना नहीं है ।(गीता १२।७)
→ भगवान् में चित्त को न लगाकर भोगों में मन लगाने में कारण एक तो मूढ़ता है, एक अविश्वास है । लोग उन्मत्त से हो रहे है, इसलिये लोगों कि दुर्दशा हो रही है ।
शेष अगले ब्लॉग में.....
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]