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→ जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, रोग इनमें दुःखरूपी दोषको देखने से वैराग्य पैदा होता है---
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।। (गीता १३ । ८ )
→ यह परमात्मा की प्राप्तिका साधन है---
दो बातन को भूल मत जो चाहत कल्यान ।
नारायण एक मौत को दूजे श्रीभगवान ।।
→ संसार के जितने विषय भोग हैं उनमें हमलोग रमते रहें तो वही बात आती है कि जीवोंमें और हममें क्या भेद है ।
येषां न विधा न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्म: ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्र्चरन्ति ।।
जिनमें विधा, तप, दान, ज्ञान(विवेक), अच्छे आचरण, सद्गुण नहीं एवं धर्मके प्रति श्रद्धा नहीं है वे मनुष्य ही कहने योग्य नहीं हैं, ऐसे लोग तो पृथ्वी के लिये भार रूप ही है, मनुष्य के रूप में पशु ही है ।
→ अच्छे पुरुष कहते हैं कि मनुष्य का शरीर पाकर जो कर्तव्य का पालन करते हैं उन्हीं को धन्यवाद है ।
→ प्रभुकी शरण होने के बाद उसके हृदय में कोई चिन्ता रहती ही नहीं ।
→ आप अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं तभी दुःख की बाढ़ है । आपका जो समय बीतता है उससे आपकी आत्मा को संतोष नहीं है । मनसे उन प्रभु की शरण होना चाहिये । उनकी शरण होने के समान संसार की किसी वस्तु को कुछ नहीं समझना चाहिये । भगवान् कहते हैं कि जो मेरी शरण होता है उसका योगक्षेम मैं चलाता हूँ---
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यम् ।। (गीता ९ ।२२ )
→ भगवान् कृष्ण भी स्वांग लाया करते थे । भीष्म को मारने के लिये भाग रहे हैं । भगवान् राम भी १४००० राक्षसों को क्रोध करके मार रहे हैं, ऐसी बात नहीं है वे तो लीला कर रहे हैं ।
→ हम लोगों के समझमें नहीं आता है उसका कारण हम में भक्ति नहीं है । भक्ति से हमको भी दिख सकते हैं, जैसे प्रह्लाद को पत्थर में भगवान् दिख रहे हैं । जो भाव प्रह्लाद का समझ में आता है, वही भाव अर्जुन का संसार में देखने में आता है । हम लोगों को भी संसार में इस प्रकार का भाव करना चाहिये कि प्रभु संसार में विराजमान हैं, ऐसे भाव से मन मुग्ध हो जायेगा ।
→ हर समय प्रभुकी शरण हो जाना चाहिये । प्रभुकी गोद में सो जाना चाहिये कि हे प्रभु तेरी शरण में पड़ा हूँ ।
→ प्रभुकी शरण होकर निश्चय कर लेना चाहिये कि कोई भय नहीं है, कोई चिन्ता नहीं है । हमें कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये, क्योंकि भगवान् की शरण होनेके बाद चिन्ता क्यों ?
शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]