अब आगे.........
→ इस विषय में यह अभिमान नहीं आना चाहिये कि मैं श्रेष्ठ हूँ, यह भाव आने से दम्भ-पाखण्ड आ जाता है, जिससे साधक डूब जाता है । यह भावना अच्छी नहीं है ।
→ अपने उत्तम काम को प्रकाशित नहीं करना चाहिये कि अमुक काम में मैंने दो हजार रूपये लगा दिये । आगे जाकर धोखा मिलेगा क्योंकि लोग जान जायेंगे कि यह बड़ाई के लिये काम करता है । प्रभु जब मान-बड़ाई , प्रतिष्ठा का दास जान लेते हैं तब नहीं आते । प्रभु के सामने प्रार्थना करनी चाहिये कि यह मेरा मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा का जो भाव है उसे आप मिटा दीजिये ।
→ वास्तवमें सच्चे मन से भगवान् के सामने रोये, हे नाथ ! आपके लिये कोई बड़ी बात नहीं है, आप एक क्षण में उद्धार कर सकते हैं, केवल आपमें प्रेम हो । मैं कहलाता तो आपका दास हूँ और हूँ विषयों का दास ।
→ हम मनसे जिस बात को नहीं चाहेंगे, उसमें हमारी पूर्ण घृणा हो जायेगी ।
→ हम मान-बड़ाई सुनने के लिये कान लगा देते हैं । वास्तव में परमात्मा से मिलने की इच्छा हो तो उनसे प्रार्थना करनी चाहिये ।
→ मकोड़े की तरह हम लोग मर जायेंगे, हमारा किसी से कुछ सम्बन्ध नहीं है । थोड़ी बुद्धिवाला मनुष्य भी हानि के पास नहीं फटकेगा, मान-बड़ाई को बिलकुल नहीं चाहेगा ।
→ गद्गद वाणी से फूट -फूटकर रोना चाहिये । हे नाथ ! मुझ डूबते हुए को बचने वाला आपके सिवाय और कोई भी नहीं है । उस सच्चे रोने से उसी समय से आपकी चाल बदल जायेगी ।
→ द्रौपदी ने आर्त होकर पुकारा, द्रौपदी समझती है हमारा कोई भी नहीं है, तब पुकारती है, हे द्वारकापति ! दीनबन्धो ! हम लोग प्रभु के लिये रोयेंगे तो प्रभु अवश्य मिलेंगे । हृदय निर्मल हो जायगा, तब प्रभु अवश्य दर्शन देंगे ।
→ रुपयों कि परवाह नहीं रखनी चाहिये, यह तात्पर्य नहीं है कि रूपये फेंक दो । अच्छे काम में रुपया लगाया जाय तो ठीक है ।
→ जैसे आपने लाख रुपया लगा दिया तो आपके इतने रुपयों का तो झंझट तो मिट गया । इस प्रकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । यह कच्ची भीती है । चाहे जिस जगह डूब जाय । मेरे शरीर का भरण-पोषण कैसे होगा, यही भाव महान भयको देने वाला है । जब तक यह संकल्प आत्मा में है तबतक यही जन्म देनेवाला है । जब यह संकल्प मिट जाय तो क्या परवाह है । सब कुछ नष्ट हो जाय तो भी कुछ परवाह नहीं है ।
शेष अगले ब्लॉग में......
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]