※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

महत्वपूर्ण बातें



अब आगे.........



 इस विषय में यह अभिमान नहीं आना चाहिये कि मैं श्रेष्ठ हूँ, यह भाव आने से दम्भ-पाखण्ड आ जाता है, जिससे साधक डूब जाता है यह भावना अच्छी नहीं है

→ अपने उत्तम काम को प्रकाशित नहीं करना चाहिये कि अमुक काम में मैंने दो हजार रूपये लगा दिये आगे जाकर धोखा मिलेगा क्योंकि लोग जान जायेंगे कि यह बड़ाई के लिये काम करता है प्रभु जब  मान-बड़ाई ,  प्रतिष्ठा का दास जान लेते हैं तब नहीं आते प्रभु के सामने प्रार्थना करनी चाहिये कि यह मेरा मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा का जो भाव है उसे आप मिटा दीजिये

 वास्तवमें सच्चे मन से भगवान् के सामने रोये, हे नाथ ! आपके लिये कोई बड़ी बात नहीं है, आप एक क्षण में उद्धार कर सकते हैं, केवल आपमें प्रेम हो मैं कहलाता तो आपका दास हूँ और हूँ विषयों का दास

 हम मनसे जिस बात को नहीं चाहेंगे, उसमें हमारी पूर्ण घृणा हो जायेगी

 हम मान-बड़ाई सुनने के लिये कान लगा देते हैं वास्तव में परमात्मा से मिलने की इच्छा हो तो उनसे प्रार्थना करनी चाहिये

 मकोड़े की तरह हम लोग मर जायेंगे, हमारा किसी से कुछ सम्बन्ध नहीं है थोड़ी बुद्धिवाला मनुष्य भी हानि के पास नहीं फटकेगा, मान-बड़ाई को बिलकुल नहीं चाहेगा

 गद्गद वाणी से फूट -फूटकर रोना चाहिये हे नाथ ! मुझ डूबते हुए को बचने वाला आपके सिवाय और कोई भी नहीं है उस सच्चे रोने से उसी समय से आपकी चाल बदल जायेगी

 द्रौपदी ने आर्त होकर पुकारा, द्रौपदी समझती है हमारा कोई भी नहीं है, तब पुकारती है, हे द्वारकापति ! दीनबन्धो ! हम लोग प्रभु के लिये रोयेंगे तो प्रभु अवश्य मिलेंगे  हृदय निर्मल हो जायगा, तब प्रभु अवश्य दर्शन देंगे


 रुपयों कि परवाह नहीं रखनी चाहिये, यह तात्पर्य नहीं है कि रूपये फेंक दो अच्छे काम में रुपया लगाया जाय तो ठीक है

 जैसे आपने लाख रुपया लगा दिया तो आपके इतने रुपयों का तो झंझट तो मिट गया इस प्रकार करने में कोई आपत्ति नहीं है यह कच्ची भीती है चाहे जिस जगह डूब जाय मेरे शरीर का भरण-पोषण कैसे होगा, यही भाव महान भयको देने वाला है जब तक यह संकल्प आत्मा में है तबतक यही जन्म देनेवाला है जब यह संकल्प मिट जाय तो क्या परवाह है सब कुछ नष्ट हो जाय तो भी कुछ परवाह नहीं है

शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]