अब आगे....
→ हमारे बेटे, पोते कमाने लायक हो गये, वह खर्च भेजने लग जायँ तो भी ठीक है, इसमें कोई दोष नहीं है—यह आधार भी बिलकुल नहीं रखना चाहिये ।
→ किसी बातकी परवाह नहीं रखे, परवाह ही मुक्ति में बाधा देनेवाली है । शरीर चाहे न रहे इसकी भी परवाह नहीं रखे । गाफिल होना उत्तम नहीं है, गफलत मुर्खता है, कायरता उत्तम नहीं है, सहनशीलता उत्तम है । उद्दण्डता खराब है, वीरता रहते हुए उद्दण्डता नहीं होनी चाहिये ।
→ अपेक्षारहित होना चाहिये, अपेक्षारहित होनेसे सब काम हो सकता है, निरपेक्षता का आश्रय लेना भी गुप्त रूप से आश्रय लेना है । मित्र की चीजको अपना मानना तथा अपनी चीज को मित्रका मानना यह मित्रता भी पदार्थों के हेतु से है ।
→ किसी भी आदमी को शरीर-निर्वाह की इच्छा के लिये किसी का आसरा नहीं रखना चाहिये । इसके लिये प्रारब्ध बना हुआ है । जीवन-निर्वाह के लिये विशेष व्याकुलता हो तो कुत्तों का दर्शन कर ले । वे भी जीवन व्यतीत करते हैं, फिर आप चिन्ता करते हैं, कितनी मुर्खता है । भगवान् का नाम विश्वम्भर है वह पापी, नीच, दुष्ट सभी का भरण-पोषण करते हैं ।
→ कोई दुनियां में ढिंढोरा पीटकर धर्म-पालन करता है उसमें अधिकांश तो ढोंग है नहीं तो मान-बड़ाई की इच्छा है । अच्छे पुरुषोंको ढिंढोरा पीटकर कर्म करने में क्या हेतु है । एक राजा का दृष्टान्त---एक राजा को ज्ञान हुआ तब उन्होंने नगरमें डुंडी पिटाई और लोगों से पूछा कि मुझे एक अमूल्य वस्तु मिली है, उसे मैं कैसे रखूँ, कई लोगों ने कई प्रकार के उत्तर दिये । एक महात्मा बनिया बोला अमोलक वस्तु मिली है तो हल्ला क्यों मचाते हैं । फिर राजा उसके पास गया, बहुत बातें हुई, अंत में राजा बोला कुछ माँगो । तब वह बोला ना भविष्य में आप मेरे पास आये और न मुझे बुलायें । राजा चुप हो गया । राजा बोला हम लोगों का समय-समय पर मिलन हो तो लाभ ही होगा । उसने उत्तर दिया हम दोनों लोगों को किसी चीज की आवश्यकता नहीं है, इसलिये मिलने में क्या लाभ है ?
→ मनुष्य को मान-बड़ाई कि तरफ से बेपरवाह रहना चाहिये, इस प्रकार बेपरवाह रहकर संसार में विचारे । इस बेपरवाही की भी बेपरवाह करके विचरना महात्मा का काम है ।
→ सब जगह बेपरवाही करता जाय, पर गफलत न हो जाय । कर्तव्य की तरफ से बेपरवाह होने को ही गफलत कहते हैं । यह नहीं करनी चाहिये । आत्मा के उद्धार का कार्य, शास्त्रानुकूल कार्यमें बेपरवाह नहीं होना चाहिये ।
→ परमात्मा का नामजप करने के लिये, अनन्य भक्ति करने के लिये मनुष्य जन्म मिला है, इसमें गफलत बिलकुल नहीं करनी चाहिये । एक कालमें एक देशमें एक शब्द उच्चारण किया गया पर लोग अपनी-अपनी भावनासे उससे लाभ-हानि उठाते हैं ।
→ `नमो भगवते वासुदेवाय` `नम: शिवाय` ओंकार छोड़कर जप करने में किसीके कुछ भी आपत्ति नहीं है । कोई भी जप कर सकता है- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।। इसको चाहे जैसे जपो, कोई आपत्ति नहीं है । इसी प्रकार पवित्र गायत्री को शुद्ध पवित्र होकर जप सकते हैं । पवित्र स्थान में गायत्री का जप, बाकी समय में जिसको जो प्रिय हो उसका जप करे, इनके महत्त्व-प्रभाव में कोई कम-बेसी नहीं हैं है ।
→ जो मनुष्य नित्य प्रति १००० गायत्री जपते हैं, वह सब पापों से छूट जाते हैं । ऋषिकेश में यह बात जोर देकर इसलिये कही है, ताकि यहाँ तो जितने दिन रहें उतने दिन तो अवश्य इतना जप करे । उत्तम बात तो यह है कि एकान्तमें जितना समय मिले उसका अर्थसहित जप करें ।
शेष अगले ब्लॉग में......
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]