अब आगे........
→ गायत्री-मन्त्र में ऊँचे-से-ऊँचे दर्जे कि भक्ति है । हे नाथ ! हमें सद्बुद्धि दें जिसके द्वारा आपमें ही मेरा अनन्य प्रेम हो । गायत्री-मन्त्र का अर्थ भगवान् का स्वरुप ही है ।
→ सारे संसार में भगवान् व्यापक कैसे हैं ? जैसे दसवें अध्याय में दिखाया गया है कि लोगों में जो विशेषता है वह सब मेरी है । जैसे भगवान् ने यक्ष के रूप में प्रकट होकर अग्नि तथा वायु के अभिमान को गला दिया । इसी प्रकार सारे संसार में जिसमें जो कुछ तेज बल है वह मेरा बल है । दसवें अध्याय में भगवान् ने अपनी साधारण विभूतियाँ बतलायीं, पर अर्जुन तो आपका पूर्ण भक्त है । उसें तो ऊँचे दर्जे कि भक्ति बतानी चाहिये । विभूतियों के वर्णन में आदि एवं अन्तका श्लोक बहुत महत्व का है । विभूतियों का सार भगवान् इस प्रकार बतलातें हैं-
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।(गीता१०।२०)
हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतोंका आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ ।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
च तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।। (गीता १०।३९)
हे अर्जुन ! जो सब भूतों कि उत्पति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ; क्योंकि ऐसा चार और आचार कोई भी भुत नहीं है, जो मुझसे रहित हो ।
अब आगे भगवान् के योग की बात कहते हैं । यावन्मात्र संसारको तू मेरे तेजके अंश से उत्पन्न हुआ जान । हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तुझे क्या प्रयोजन है ? यह सब संसार मेरे एक अंशसे व्याप्त है । वास्तव में जो अपरिवर्तनीय वस्तु है वह मैं हूँ, आकाश में शब्दके रूपमें मुझे देख ।
मंदिर में जो मूर्ति है उसमें आप ईश्वर कि भावना करते हैं इसी प्रकार जलमें मैं रस हूँ । यानि इसमें मेरी भावना कर । सब जगह तू मुझे देख । प्रभु के तत्व को जानने के बाद सब जगह प्रभु दिखने लग जाते हैं ।
→ गोपियों का जहाँ-जहाँ मन जाता था, पान में, पत्ते में, सब जगह भगवान् कृष्ण को देखती थीं । जहाँ पर भी मन जाय वहीँ पर वही दिखते थे ।
सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमन्त ।
मैं सेवक सचराचर रूप राशि भगवन्त ।।
सियाराम मय सब जग जानी । करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।
आप लोग मुझे अच्छा समझकर मेरे पास आये, मैं आप लोगों कि पूर्ति नहीं कर सका, जिससे मेरेपर भार ही रहा । आप लोग मेरे पर श्रद्धा करते हैं, प्रेम करते हैं, मैं आपलोगों के प्रेमके अनुसार कुछ भी नहीं कर पाया ।
→ अतिथि वही समझा जाता है जिसके आने कि कोई तिथि न हो । भिखारी अपने घर पर नित्य आकर डेरा डाल दे, वह न तो अतिथि है न अभ्यागत है । राजा सबके अतिथि है ।
मुख्य अतिथि तो अपने समान जातिवाला, ऊँची जातिवाला है, राजा तो अतिथि है ही । प्रधान तो ये ही अतिथि है । अपने घर पर आये हुये ब्रह्मचारी, भिक्षु भी वैसे ही अतिथि है, गृहस्थ का कर्तव्य है उनका आदर-सत्कार करे ।
→ उत्तम गुण किसी में आयें तो उनका आदर करे । जैसे अपने घर में आनेवाले का आदर किया जाता है, उसी तरह इसका विशेष आदर करना चाहिये, जितना अधिक आदर करेंगे उतना ही ज्यादा बढेगा ।
शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ![ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]