※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

महत्वपूर्ण बातें



अब आगे........

→ गायत्री-मन्त्र में ऊँचे-से-ऊँचे दर्जे कि भक्ति है हे नाथ ! हमें सद्बुद्धि दें जिसके द्वारा आपमें ही मेरा अनन्य प्रेम हो गायत्री-मन्त्र का अर्थ भगवान् का स्वरुप ही है
 सारे संसार में भगवान् व्यापक कैसे हैं ? जैसे दसवें अध्याय में दिखाया गया है कि लोगों में जो विशेषता है वह सब मेरी है जैसे भगवान् ने यक्ष के रूप में प्रकट होकर अग्नि तथा वायु के अभिमान को गला दिया इसी प्रकार सारे संसार में जिसमें जो कुछ तेज बल है वह मेरा बल है दसवें अध्याय में भगवान् ने अपनी साधारण विभूतियाँ बतलायीं, पर अर्जुन तो आपका पूर्ण भक्त है उसें तो ऊँचे दर्जे कि भक्ति बतानी चाहिये विभूतियों के वर्णन में आदि एवं अन्तका श्लोक बहुत महत्व का है विभूतियों का सार भगवान् इस प्रकार बतलातें हैं-
अहमात्मा गुडाकेश   सर्वभूताशयस्थितः
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।(गीता१०२०)
 हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतोंका आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ
यच्चापि    सर्वभूतानां     बीजं     तदहमर्जुन
च तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।। (गीता १०३९)
 हे अर्जुन ! जो सब भूतों कि उत्पति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ; क्योंकि ऐसा चार और आचार कोई भी भुत नहीं है, जो मुझसे रहित हो
 अब आगे भगवान् के योग की बात कहते हैं यावन्मात्र संसारको तू मेरे तेजके अंश से उत्पन्न हुआ जान हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तुझे क्या प्रयोजन है ? यह सब संसार मेरे एक अंशसे व्याप्त है वास्तव में जो अपरिवर्तनीय वस्तु है वह मैं हूँ, आकाश में शब्दके रूपमें मुझे देख
 मंदिर में जो मूर्ति है उसमें आप ईश्वर कि भावना करते हैं इसी प्रकार जलमें मैं रस हूँ यानि इसमें मेरी भावना कर सब जगह तू मुझे देख प्रभु के तत्व को जानने के बाद सब जगह प्रभु दिखने लग जाते हैं
 गोपियों का जहाँ-जहाँ मन जाता था, पान में, पत्ते में, सब जगह भगवान् कृष्ण को देखती थीं जहाँ पर भी मन जाय वहीँ पर वही दिखते थे
सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमन्त
मैं  सेवक  सचराचर  रूप  राशि  भगवन्त ।।
सियाराम मय सब जग जानी करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।
   आप लोग मुझे अच्छा समझकर मेरे पास आये, मैं आप लोगों कि पूर्ति नहीं कर सका, जिससे मेरेपर भार ही रहा आप लोग मेरे पर श्रद्धा करते हैं, प्रेम करते हैं, मैं आपलोगों के प्रेमके अनुसार कुछ भी नहीं कर पाया
 अतिथि वही समझा जाता है जिसके आने कि कोई तिथि न हो भिखारी अपने घर पर नित्य आकर डेरा डाल दे, वह न तो अतिथि है न अभ्यागत है राजा सबके अतिथि है
   मुख्य अतिथि तो अपने समान जातिवाला, ऊँची जातिवाला है, राजा तो अतिथि है ही प्रधान तो ये ही अतिथि है अपने घर पर आये हुये ब्रह्मचारी, भिक्षु भी वैसे ही अतिथि है, गृहस्थ का कर्तव्य है उनका आदर-सत्कार करे
 उत्तम गुण किसी में आयें तो उनका आदर करे जैसे अपने घर में आनेवाले का आदर किया जाता है, उसी तरह इसका विशेष आदर करना चाहिये, जितना अधिक आदर करेंगे उतना ही ज्यादा बढेगा

शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]