※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

महत्त्वपूर्ण बातें


अब आगे.....

 जप-ध्यानमें जो स्फुरणा होती है वह जप-ध्यान से ही कटेगी तथा वैराग्य से भी कटेगी; क्योंकि स्फुरणा प्रायः आसक्तिसे ही होती है, वह स्फुरणा वैराग्य से कट जायगी, आदतकी स्फुरणा भजन-ध्यान से स्वतः ही नष्ट हो जायगी परमात्मा के स्वरूपका ध्यान, नामका जप, प्राणायाम इन सबसे स्फुरणा नष्ट होगी
 अविद्या दुःख को पैदा करनेवाली होने से क्लेशदायक है
 सबसें मित्रता क्यों करनी चाहिये ? महान पुरुष सबके साथ प्रेम करने के लिये कहते हैं अज्ञानी पापी के साथ प्रेम करेंगे तो फँसने का भय है महापुरुष ही यदि पापियों की उपेक्षा करेंगे तो फिर उनकी संभाल कौन करेगा ? गीतामें `सर्वभूतानाम् मैत्रः` या पद आये हैं
 नीच पुरुषों कि उपेक्षा किस तरह करनी चाहिये ? जैसे आपके मित्रके प्लेगकी बीमारी हो गयी तो उससे दुरसे यानि बीमारी से डरते हुये उसका इलाज कराये जिन पुरुषों में दुराचार है, जिनके मानसिक बीमारी है, उनका रोग मिटे ऐसी चेष्टा करनी चाहिये
 जिसमें विद्वता का अभिमान है वह ज्यादा दया का पात्र है
 परमात्मा की प्राप्ति होनेके बाद अभय हो जाता है यह बात तो ठीक है, पर उनके निकर पहुँचनेपर भी अभय हो जाता है
 अभय पद कैसे प्राप्त होता है ? अन्त:करण की शुद्धि होने से निर्भय हो जाता है जैसे रात्रि में कोई सोया हुआ है, वह स्वप्न में बाघ आया हुआ देखकर बड़ाभारी भयभीत हो रहा है, कलेजा धक्-धक् कर रहा है स्वप्न में बाघ से डरकर यह दशा हुई, जाग्रत होने पर अब वह बात नहीं है
 ध्यान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, साधक निर्भय हो जाता है आलस्य एवं स्फुरणा के कारण ध्यान नहीं होता
 प्रश्न---सत्संग करते हैं, गीता भी देखते हैं, पर आँख तो नहीं खुली ?
उत्तर---पाठ तो करते हो आँख मीचे हुए, सोये हुए, इससे क्या लाभ हो पाठ तो करते हो उसके अर्थ का पता नहीं है उसके बिना क्या हो ? जिसने आत्मा का कल्याण नहीं किया उसको धिक्कार है लाख काम छोड़कर, करोड़ काम छोड़ कर जिस काम में परमात्मा की प्राप्ति हो वही काम पहले करना चाहिये
 कुपथ्य करके आदमी मर सकता है औषधि बिना कोई नहीं मर सकता इसमें विश्वास का काम है शास्त्रविरुद्ध, धर्मविरुद्ध कोई औषधि नहीं लेनी चाहिये विदेशी कोई चीज काम में नहीं लेनी चाहिये सबसे ख़राब चीज विदेशी औषधि है इससे अपना सर्वनाश हो गया मृत्यु से कोई औषधि नहीं बचा सकती तीसरी बात यह है कि देशी औषधि उपयोग में ली जाय उससे अपना जितना लाभ है उतना किसी से नहीं है
 उत्तम कर्म तो करने से होगा, उसमें प्रभु की दया समझनी चाहिये बुरा काम हो उसमें अपनी आसक्ति का दोष समझना चाहिये
→ उत्तम कर्म करने में स्वतंत्रता है, इसमें भगवान् पूरी सहायता देता हैं अच्छे कर्ममें कुसंग तथा बुरी आदत बाधा देते हैं
 गोद लेकर अपना लड़का बना लेना शास्त्र के विरुद्ध नहीं है पर वर्तमान में देखा जाय तो किसी को डूबना हो तो गले में पत्थर बाँधकर डूबना है यदि आपके पास धन हो तो अच्छे काम में लगा देना चाहिये

शेष अगले ब्लॉग में......

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]