अब आगे......
→ सब विघ्न भगवान् के स्मरण से नष्ट हो जाते हैं, ऐसा शास्त्र कहते हैं---
जब ही नाम हिरदे धरयो भयो पाप को नाश ।
जैसे चिनगी अग्निकी परी पुराने घास ।।
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अपि चेत्सदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि स:।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शस्र्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ।।(गीता ९।३०-३१)
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधू ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है । अर्थात उसने भली भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है । वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शांति को प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ।
→ भजनको जितना मूल्यवान समझकर करेंगे उतना ही मूल्यवान होगा । जैसे कोई बेटे के लिये भजन करता है उसके लिये रुपया मूल्य हो गया तथा कोई पाप नाश के लिये करता है उसके लिये पापों का नाश मूल्य हुआ । प्रभुमें प्रेम के लिये करे तो प्रेम होगा, प्रेम होगा तो भगवान् मिलेंगे । प्रेम का मूल्य भगवान् होते हैं या यूँ कह सकते हैं भगवान् का मूल्य प्रेम है ।
→ भगवान् के मिलने के बाद भी भजन करते हैं, उन्हें कोई भी आवश्यकता नहीं है तो भी भजन करते हैं । कोई पूछे उनके लिये क्या कर्तव्य है ? जिस भजन से भगवान् मिलते हैं, ऐसे भजन को वो कैसे छोड़ सकते हैं । इसके समान उनके लिये क्या होगा ।
→ एक तरफ सारा संसार सोने से भर दिया जाय और एक तरफ भगवान् का एक नाम तो वह सोना नामका मूल्य हो सकता है क्या ? स्वप्नके राज्य का एक कौड़ी भी मूल्य नहीं है, भगवान् के नाम का मूल्य नहीं हो सकता ।
→ जिस प्रकार जुगनू का प्रकाश सूर्य के सामने किसी भी गिनती में नहीं है, उसी प्रकार त्रिलोकी के जीवों का सारा सुख भगवत्प्राप्ति के सुखके सामने कुछ भी नहीं है । जब मनुष्य ऐसे परमात्मा को छोड़कर भोगों के लिये पाप कर रहे हैं, वह परमात्मा के भजन के प्रभाव को क्या जाने ? जो परमात्मा के भजन को छोड़ता है वह परमात्मा के प्रभाव को जानता ही नहीं । जानता तो उसमें यह अवगुण कैसे रहता ? यदि वह भगवान् के भजन को, सत्य को शरीर के भोगों के लिये छोड़ता है तो उसने परमात्मा के प्रभाव को क्या जाना ?
→ भजन को जितना मूल्यवान समझाते हैं उतना ही मूल्य मिलता है । वास्तव में वह ठगा रहा है । हम लोगों द्वारा पाप भी होता रहे और हम लोग भजन भी करते रहे तो प्रभाव कहाँ समझा ।
→ अमूल्य वस्तु का मूल्य लगाना ही मूर्खता है, उसको भगवान् भगवानको मिले बिना संतोष कैसे होता ।
मैं आशिक तेरे रूप पर बिन मिले सब्र नहीं होता ।
→ हे नाथ ! आपकी दया के प्रताप से इस पिशाचिनी मायाकी सामर्थ्य नहीं है जो मुझे फंसा सके । जब आपके चरणों का आसरा है तब मुझे माया क्या लुभा सकती है ?
जो प्रभु के प्रभाव को पूर्णरूप से जान गया, किसकी सामर्थ्य है जो उसे लुभा सके । माया उसकी चेरी हो जाती है, इसके रहस्य को जो थोडा भी समझ जाता है, वह भोगों को क्यों भोगेगा ।
शेष अगले ब्लॉग में..........
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]