※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 22 सितंबर 2012

महत्त्वपूर्ण बातें


अब आगे......

 सब विघ्न भगवान् के स्मरण से नष्ट हो जाते हैं, ऐसा शास्त्र कहते हैं---
जब ही नाम हिरदे धरयो भयो पाप को नाश
जैसे  चिनगी  अग्निकी  परी   पुराने   घास ।।
          ******
अपि  चेत्सदुराचारो    भजते    मामनन्यभाक्
साधुरेव  स  मन्तव्यः   सम्यग्व्यवसितो हि स:।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा  शस्र्वच्छान्तिं निगच्छति
कौन्तेय  प्रति  जानीहि  न  मे  भक्त: प्रणश्यति ।।(गीता ९३०-३१)
 यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह  साधू ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात उसने भली भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है  वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शांति को प्राप्त होता है हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता
 भजनको जितना मूल्यवान समझकर करेंगे उतना ही मूल्यवान होगा जैसे कोई बेटे के लिये भजन करता है उसके लिये रुपया मूल्य हो गया तथा कोई पाप नाश के लिये करता है उसके लिये पापों का नाश मूल्य हुआ प्रभुमें प्रेम के लिये करे तो प्रेम होगा, प्रेम होगा तो भगवान् मिलेंगे प्रेम का मूल्य भगवान् होते हैं या यूँ कह सकते हैं भगवान् का मूल्य प्रेम है
 भगवान् के मिलने के बाद भी भजन करते हैं, उन्हें कोई भी आवश्यकता नहीं है तो भी भजन करते हैं कोई पूछे उनके लिये क्या कर्तव्य है ? जिस भजन से भगवान् मिलते हैं, ऐसे भजन को वो कैसे छोड़ सकते हैं इसके समान उनके लिये क्या होगा
 एक तरफ सारा संसार सोने से भर दिया जाय और एक तरफ भगवान् का एक नाम तो वह सोना नामका मूल्य हो सकता है क्या ? स्वप्नके राज्य का एक कौड़ी भी मूल्य नहीं है, भगवान् के नाम का मूल्य नहीं हो सकता
 जिस प्रकार जुगनू का प्रकाश सूर्य के सामने किसी भी गिनती में नहीं है, उसी प्रकार त्रिलोकी के जीवों का सारा सुख भगवत्प्राप्ति के सुखके सामने कुछ भी नहीं है जब मनुष्य ऐसे परमात्मा को छोड़कर भोगों के लिये पाप कर रहे हैं, वह परमात्मा के भजन के प्रभाव को क्या जाने ? जो परमात्मा के भजन को छोड़ता है वह परमात्मा के प्रभाव को जानता ही नहीं जानता तो उसमें यह अवगुण कैसे रहता ? यदि वह भगवान् के भजन को, सत्य को शरीर के भोगों के लिये छोड़ता है तो उसने परमात्मा के प्रभाव को क्या जाना ?
 भजन को जितना मूल्यवान समझाते हैं उतना ही मूल्य मिलता है वास्तव में वह ठगा रहा है हम लोगों द्वारा पाप भी होता रहे और हम लोग भजन भी करते रहे तो प्रभाव कहाँ समझा
 अमूल्य वस्तु का मूल्य लगाना ही मूर्खता है, उसको भगवान् भगवानको मिले बिना संतोष कैसे होता
मैं आशिक तेरे रूप पर बिन मिले सब्र नहीं होता
 हे नाथ ! आपकी दया के प्रताप से इस पिशाचिनी मायाकी सामर्थ्य नहीं है जो मुझे फंसा सके जब आपके चरणों का आसरा है तब मुझे माया क्या लुभा सकती है ?
  जो प्रभु के प्रभाव को पूर्णरूप से जान गया, किसकी सामर्थ्य है जो उसे लुभा सके माया उसकी चेरी हो जाती है, इसके रहस्य को जो थोडा भी समझ जाता है, वह भोगों को क्यों भोगेगा
शेष अगले ब्लॉग में..........


नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]