※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 22 सितंबर 2012

राधाष्टमी कि हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई


आप सभी को राधाष्टमी कि हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाईयाँ

हमलोगों ने यह समझ रखा है कि जैसे हमलोगों में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराधामें सम्बन्ध है; पर ऐसी बात नहीं है| श्रीकृष्ण और श्रीराधा का जो प्रेम है, वह एक विलक्षण तत्व है| इसमें भी श्रीराधा प्रेम-तत्व है| जिस तरह लोभी मनुष्य के सामने एक तो होता है धन और एक होता है ढंकी तरफ खिंचाव; धन प्रिय लगता है, धनमें खिंचाव होता है और इसको लोभ कहते हैं; इसी तरह एक तो हैं भगवान् और एक है भगवानकी तरफ खिंचाव| भगवान् में जो खिंचाव है वह राधा-तत्व है और जिसमें वह खिंचाव होता है , वह श्रीकृष्ण-तत्व है| लोभ में तो केवल मनुष्य का ही धनमें खिंचाव होता है, धनका मनुष्य में खिंचाव नहीं होता| परन्तु प्रेममें भगवान् श्रीकृष्णका श्रीराधाजीमें और श्रीराधाजीका भगवान् श्रीकृष्णमें परस्पर खिंचाव होता है|
सामान्य स्त्री-पुरुष का जो खिंचाव होता है, उसमें और श्रीराधाकृष्णके खिंचावमें बड़ा अंतर है| स्त्री-पुरुष्का खिंचाव तो अपने सुखके लिए होता है पर श्रीराधाजीका और भगवान् श्रीकृष्णका खिंचाव एक-दूसरेको सुख देने के लिए होता है, निज सुख के लिए नहीं| जहाँ निज सुख का भाव होता है. वहाँ राग होता है, कामना होती है, जो फँसानेवाली है|
थोड़े अंशमें यह बात ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे माँका बालकमें खिंचाव होता है और बालकका माँमें खिंचाव होता है| बालक तो अपने लिए ही माँ को चाहता है; क्योंकि वह समझता ही नहीं कि माँ का हित किसमें है| परन्तु माँ केवल अपने लिए ही बालक को नहीं चाहती, वह बालकका हित भी चाहती है| परन्तु ऐसा होनेपर भी माँ कि ऐसी इच्छा रहती है कि बालक बड़ा हो जाएगा तो उसका ब्याह करूँगी, बहु आएगी, सेवा करेगी, पोता होगा इत्यादि| ऐसी उसके भीतर भविष्य के सुख कि आशा रहती है, चाहे वह इस बात को अभी स्पष्ट जाने य न जाने| परन्तु भगवान् और श्रीजी में ऐसा भाव नहीं रहता कि भविष्यमें सुख होगा| उनको तो एक-दूसरेको सुखी देखनेमात्रसे सुख होता है| अब उस सुख को कैसे बतायें? संसारमें ऐसा कोई सुख है ही नहीं| संसारमें हमर जो आकर्षण होता है, वह आकर्षण शुद्ध नहीं है, पवित्र नहीं है; क्योंकि वह अपने सुखके लिए, अपने स्वारथके लिए होता है|