※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

महत्त्वपूर्ण बातें



अब आगे......

 संयम का महत्त्व जाननेसे आपको बहुत लाभ होता है ऐसे ही मनका संयम करे मनका तीन दोष है, मनको तीन प्रकार से नियन्त्रित करना है-
 कम से कम पहले मन को पापों से रोकना चाहिये दोन नम्बर भोगोंसे मनको संयम करना चाहिये भोगोंका संयम यानी भोगोंका हाथ से त्याग करना या भोगोंकी ओर मन, इन्द्रियोंको जाने से रोकना तथा भोगों से वैराग्य करना न्याययुक्त और अन्याययुक्त भोगों पर वृत्ति न स्वप्न में हो, न जाग्रत में हो यदि जाग्रत में अथवा स्वप्न में भी हमारा मन जाता है तो संयम में कमी है तीसरे मनको विक्षेप दोषसे बचाना चाहिये मन की चंचलता को रोकना चाहिये

 जाग्रत में चोरी नहीं करते; किन्तु स्वप्न में चोरी करते हो तो जाग्रत में भी चोरी घट सकती है

 किसी वैश्य को पूछो कभी स्वप्न में ब्रह्मपुरी में भोजन करने तथा मांस खाने का स्वप्न आता है क्या ? नहीं आता है तो समझना चाहिये उससे वैराग्य है

 जबतक स्वप्न में बुरा भाव आते तब तक कमी है

 जब तक मन वश में नहीं हो तब तक परमात्मा की प्राप्ति होनी कठिन है भगवान् कहते हैं---

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:
वश्यात्मना तू यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।(गीता ६३६)

 जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है—यह मेरा मत है

 खूब तत्पर रहकर साधन करना चाहिये

 एक बात याद रखने की है । नित्य पन्द्रह-बीस मिनट विचार करना चाहिये कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह ठीक है या नहीं, इसमें क्या-क्या त्रुटी है, त्रुटी के लिये नित्य प्रति कमर कसकर सुधार करने कि चेष्टा करनी चाहिये

  सबमें सार बात यह है कि भगवान् की स्मृति बराबर करनी चाहिये चाहे और सारे काम बिगड़ जायँ भगवान् को नहीं भूलना चाहिये

 मान-बडाई-प्रतिष्ठासे बचना चाहिये, यह तो डुबाने वाले हैं जीव स्वाभाविक ही इनको चाहता है पर इनसे बचना ही चाहिये

 हर एक व्यक्ति में यह गुण होना चाहिये—वीरता, धीरता, गम्भीरता, निर्विकारता

 बीमारी हो जाय तो खूब प्रसन्न रहना चाहिये हथियार नहीं डालना चाहिये, इस विषय में शूरवीर रहना चाहिये

 हमें तो यह पढाई करनी है कि जितनी प्रतिकूलता आये उसमें सम रहें । समता जितनी ज्यादा होगी, उतनी ही जल्दी भगवान् की प्राप्ति होगी यह तो मामूली बात है, इस बातकी थोड़ी-सी सम्हाल रखनेसे आदमी के उद्वेग नहीं हो सकता

शेष अगले ब्लॉग में........

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]