अब आगे......
→ लिप्सा और दीनता को छोड़कर की
हुई वीरता ही वीरता है ।
→ उद्दण्डता को छोड़कर की हुई
वीरता ही वीरता है ।
→ कायरता को छोड़कर की हुई दया ही
असली दया है ।
→ दयाका नाम करुणा भी है यह गुण
है ।
→ कायरता की वाचक दया अवगुण है ।
→ एक तरफ लाख रुपया चला जाय तब
भी रत्तिमात्र भी प्रेममें कलंक लगे, ऐसा काम नहीं करना चाहिये ।
→ सबसे आवश्यक बात----
* थोड़े से धर्म के लिये भी प्राण
कोई चीज नहीं समझना चाहिये ।
* थोडेसे भी भजन के लिये प्राणों
कि परवाह नहीं करनी चाहिये ।
* प्राणोंके लिये ईश्वर के प्रेम
में थोड़ा भी कलंक नहीं लगाना चाहिये ।
* जिस कामसे भगवान् नाराज होते हों
या भगवान् के प्रेममें थोड़ी भी बाधा आती हो, उस जगह प्राणों की परवाह नहीं करनी
चाहिये ।
* धर्म एक बड़ी चीज है, इसके सामने
रुपया कुछ चीज नहीं है ।
इससे हलकी बातें यह है----
* यदि आप धनको कुछ चीज समझते है
और धर्म की आवश्यकता भी समझते हैं तो प्रारब्ध पर विश्वास रखकर धर्म को न छोड़ें,
आपके प्रारब्ध मे जितना रुपया होगा उतना रुपया मिल जायगा ।
* ईश्वर के क्षणभर के प्रेम से,
करोड़ रुपयोंकी भी तुलना नहीं है । अपने प्रारब्ध में लिखा होगा उतना रुपया तो आएगा ही ।
* आपका यदि प्रारब्ध पर भी विश्वास
नहीं है तो भी आप रुपयों के लिये धर्मको मत छोड़ें ।
* थोड़ी देर के लिये सोच लिया जाय
कि चोर-डाकुओं के धन आता दिखता है, उस तरह हमारे भी धन आयेगा ।इस प्रकार मानना भी हानि है । चोरी झूठ को आप कैसा समझाते हैं ? मैं तो बहुत बुरा
समझता हूँ । आपको यह छोड़ने चाहिये ।
* विचार करें हम किसके दास हुए । हमने छदाम के बराबर भी ईश्वर को नहीं समझा ।
* आप रेल में यात्रा करें; किन्तु
भाड़ा नहीं दें तो चोरी ही हुई, इसमें कोई शंका नहीं है ।
* दूसरे के हक़ को मारना पाप है ।
→ प्रत्यक्ष में भी आपको पाप से
जय नहीं होगी । लोक में भी सच्चाई से व्यवहार करनेवाला जैसा चलेगा,
ऐसा दूसरा नहीं चलेगा । जैसे अंग्रेजों ने स्वार्थ से सच्चाई किया तो उनको
लाभ मिला । उनकी उस ईमानदारी व्यापारी की इज्जत थी । उनकी धर्मबुद्धि नहीं थी ।
→ वजनके लेन-देन में सबसें बढ़िया बात यह है कि
लेनेमें एक पैसा भर कम लेना और देने के समय एक पैसा भर अधिक देना । दूसरा नम्बर यह है कि पूरा लेवे और पूरा देवे ।
→ देते समय कम देना लेते समय अधिक
लेनेवाले की नियत में धोखा है ।
शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]