अब आगे.......
→ सब जगह परमात्मा को देखता रहे । स्वार्थ को छोड़कर सबको आराम पहुँचाना ही भगवान् की पूजा है ।
→ साधक के लिये एक गीता ही है,
उसके विपरीत हो, उसका झंझट छोड़ दो । गीता के अनुकूल हो उस शास्त्र ही मानना चाहिये ।
→ इतना समय बीत गया, मृत्यु निकट
आ रही है । परमात्मा की प्राप्ति को छोड़कर इन सबमें अपना समय
बिता दोगे तो बड़ी हानि होगी । इन सब बातों को छोड़कर परमात्मा की प्राप्ति करनी
चाहिये ।
→ एक जन्म के थोड़े समयमें भी
भगवान् की प्राप्ति हो सकती है ।
→ भगवान् कर्ण को छलने वाले थे,
तब भी कर्ण बोला मैं तो राज्य दुर्योधन को दूँगा । यदि वह भगवान् की बात मानकर पाण्डवोंसे मिल जाता तो यह घूस खाना था ।
→ अपने तो यह करो कि सभी जगह साथ
रहें, हरिकथा होती ही रहे । खूब भजन-ध्यान करें, खूब सत्संग करें और साथ ही रहें
। गीता ५।२६ को याद रखते हुए परमात्मा के लिये शरीर को मिट्टी
में मिला दें ।
→ प्रश्न प्रेम किस तरह हो ?
उत्तर-१ थोड़े से प्रेम के लिये
प्राणों को भी कुछ नहीं समझे, चाहे सर्वस्व चला जाय प्रेम नहीं छूटना चाहिये । ईश्वर के प्रेममें बाधा पड़े तो प्राण कि भी कुछ परवाह नहीं करनी चाहिये ।
२ ईश्वर प्रेम ऐसा है कि उसके
सामने सारी दुनिया की सम्पति भी तिनके के बराबर नहीं है ।
३ रत्नों के लिये पत्थर त्यागने
में कुछ कठिनता नहीं है । इसी तरह रत्नों की जगह प्रेम को समझे ।
४ भले ही सर्वस्व चला जाय प्रेम के
लिये किसी चीज की परवाह न करे ।
५ थोड़ी प्रेम की बात भी लो,
निष्काम कर्म की बात भी लो ।
६ एक कोई वैध है किसी रोगी की सेवा
कर रहा है, उसके नौकर ने समझा दिया कि माँगने पर ४/- मिलेगा, नहीं माँगने पर ४०/-
देगा, देने पर भी कुछ नहीं लेनेवाले का दास हो जाता है । इस तत्वको समझनेवाले के लिये रुपयोंके त्यागमें कुछ कष्ट नहीं होता । इस प्रकार कर्म करने से भगवान् मिलेंगे, भगवान् के समान कुछ नहीं है ।
७ कहाँ तो भगवान् का प्रेम और कहाँ
संसार के कंकड़-पत्थर ।
→ मान लो मैंने आपको पचास हजार
रूपये भेजे और कहा कि जिन लोगों को दुखी देखो, उनके घरमें समान पहुंचा दिया करो ।दुखी अनाथ को रुपया बाँटो, इससे उन्हें प्रसन्नता होगी । इसमें आपके क्या आपत्ति आई, बल्कि लाभ है, इससे मालिक बहुत प्रसन्न होते हैं । इसी प्रकार आपके पास जो चीज है, वह मालिककी है ऐसी मान लेने पर कष्ट क्यों
होगा, परन्तु आप लोग कहते तो मालिककी, पर उसे अपनी मान रखी है ।
अपने पास जो पूँजी है वह मालिक की है । यह बात समझमें आ जाय, तब तो कुछ कठिनता नहीं है । समलोष्टाश्मकांचनः हो जाय, फिर तो बात ही न्यारी है ।
→ एक आदमी कह दे कि हमारे तो झूठ
बिना काम नहीं चलेगा तो उसके तो झूठ ही रहेगा ।
शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
![ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]