अब आगे......
→ जिसका काम परमात्मा बिना नहीं
चलता, उसें परमात्मा ही मिलेंगे ।
→ जब भगवान् के बिना काम नहीं
चलता तब भगवान् को आना ही पड़ता है ।
→ चाहे सब नाराज हो जायँ पर
भगवान् को नाराज करने से काम नहीं चलता ।
→ एक तरफ परमेश्वर तथा एक तरफ यह
संसार, फिर भगवान् को कैसे छोड़ोगे ।
→ समलोष्टाश्मकांचन । यह बात भगवान् कह रहे हैं तब हमें यह बात तो माननी ही चाहिये । लोभ त्यागकर उत्तम व्यवहार करो ।
→ रुपया त्यागने से भगवान् मिलते
हैं । रुपया अपने पास थोड़ा है तो और भी इकठ्ठा हो जायगा, किन्तु यह रुपया हमारे
क्या काम आयेगा ? इसके त्याग से भगवान् मिलते हैं जो सदा काम आनेवाले हैं ।
→ जिसके त्याग से भगवान् मिलें,
जिसकी कुछ कीमत नहीं है, ऐसा समझकर इस चीज को छोड़ दो ।
→ भगवान् के लिये समय दिया । उनके लिये झूठ नहीं बोले ।
→ एक तरफ लाख रुपया है, एक तरफ
भगवान् के नामका उच्चारण है । नामका जप क्यों करें ? इससे भगवान् मिलते हैं ।
→ निष्काम भाव से व्यवहार करने
से भगवान् मिलते हैं ।
→ निष्काम कर्म से भगवान् मिलते
हैं, यह बात समझमें आ जाय तब कर्म करनेमें भजनसे भी अधिक प्रसन्नता होगी । यह काम विश्वास करके करो तो इससे बहुत लाभ होगा । एक बार इसमें विश्वास करके काम करनेमें प्रसन्नता रहती है ।
→ ऊँचे दर्जे के साधक और भक्त के
लिये कर्म भार रूप नहीं है । उनको तो कर्म करने में प्रसन्नता ही होती है, जैसे-भजन
ध्यान करने में प्रसन्नता रहती है, इसी प्रकार कर्म करने में प्रसन्नता रहती है ।
→ आखिर में विजय तो अपनी ही होनी
हैं, क्योंकि अपनी सहायता भगवान् करने वाले हैं । अपने तो भगवान् तो साथी है, इसलिये इन काम-क्रोध को मारना चाहिये ।
→ प्रभु की अपने पर बड़ी भारी
दया है ।
→ भगवान् हमारे पर बहुत प्रसन्न
है । प्रसन्नता किस बात की है कि भगवान् हमपर बहुत प्रसन्न हैं, दूसरी प्रसन्नता
इस बात की है कि भगवान् की याद हमें भगवान् ने हर समय दी है ।
→ अपना कल्याण होने में कुछ शंका
नहीं है । अपना तो उद्धार होगा ही, उनकी दयाके सामने यह कौन
बड़ी बात है ।
→ उनकी दया को याद करके
क्षण-क्षण में मुग्ध होता रहे ।
→ खूब बेपरवाह रहे । बिना हुए भी आनन्द माने । समझे आनन्द का भंडार भरा पड़ा है । परमात्मा आनन्दमय हैं, मैं भी आनंदमय हूँ ।
→ भगवान् की विस्मृतिका पश्चाताप
बहुत अच्छा है, परन्तु असली पश्चाताप वह है, जिसमें उनको कभी भूले ही नहीं ।
→ पचास आदमी एक बातको ठीक है बिना
समझे लिखते गए तो क्या हुआ ? उसका क्या मूल्य है ? जो रहस्य समझकर लिखता है वही ठीक
है ।
→ स्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ बतावे
वही धर्म है । दस हजार लोग बतावें वह धर्म नहीं है ।
→ कोई भी संकल्प आये उसको आदर
नहीं देना चाहिये ।
→ दोषको छोड़कर गुणों को ग्रहण
करे । दोषों को छोड़ना कोई कठिन नहीं है ।
→ भगवान की प्राप्ति तो अपने हाथ
की बात है । अपने घर कोई भोजन करने आये तो उसे भगवान् समझकर भोजन
कराओ ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
![ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]