भारतवर्ष के व्यापार और
व्यापारियों कि आज बहुत बुरी दशा है । व्यापार की दुरवस्था में विदेशी शासन भी एक बड़ा
कारण है, परन्तु प्रधान कारण व्यापारिक समुदाय का नैतिक पतन है । व्यापार की उन्नति के असली रहस्य को भुलाकर लोगों ने व्यापार मे झूठ, कपट,
छलको स्थान देकर उसे बहुत ही घृणित बना डाला है । लोभ कि अत्यन्त बढ़ी हुई प्रवृति ने किसी भी तरह धन कमाने कि चेष्टा को ही
व्यापार नाम से स्वीकार कर लिया है । बहुत-से भाई तो व्यापार मे झूठ, कपट का रहना आवश्यक
और स्वाभाविक मानने लगे हैं और वे ऐसा भी खाते हैं कि व्यापार मे झूठ कपट के बिना
काम नहीं चलता । परन्तु वास्तव में यह बड़ा भारी भ्रम है । झूठ कपट
से व्यापार मे आर्थिक लाभ होना तो दूर की बात है परन्तु उलटी हानि होती है । धर्म की हानि तो स्पष्ट ही है । आजकल व्यापारी जगत मे अँग्रेज-जाति का विश्वास औरों
कि अपेक्षा बहुत बढ़ा हुआ है । व्यापारी लोग अंग्रेजों के साथ व्यापार करने मे उतना
डर नहीं मानते जितना उन्हें अपने भाइयों के साथ करने में लगता है । यह देखा गया है कि गल्ला, तिलहन वगैरह अंग्रेजों को दो आना निचे में भी लोग
बेच देते है, आमदनी मालके लेनदेन का सौदा करने में भी पहले अंग्रेजों को देखते
हैं, इसका कारण यह है कि उनमें सच्चाई अधिक है । इसीसे उन पर लोगों का विश्वास अधिक है । इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि अँग्रेज सभी सच्चे और भारतवासी मात्र सच्चे
नहीं है । यहाँ मतलब यह है कि व्यापारी कार्यों में हमारी
अपेक्षा उनमें सत्य का व्यवहार कहीं अधिक है । वह किसी भी धर्म के ख्याल से नहीं, व्यापारमें उन्नति होने और झूठे झंझटों से
बचने के ख्याल से है ।
सच्चाई के व्यवहार के करण जिन अँग्रेज और
भारतीय फर्मोंपर लोगों का विश्वास है, उनका माल कुछ ऊँचे दाम देकर भी लेने में लोग
लेनेमें नहीं हिचकते । बराबर के भाव में तो खुशामद करके उनके साथ काम करना
चाहते हैं । शेष अगले ब्लॉग में..
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]