भक्त सावंता माली |
अब आगे......
भगवान् ने वर्ण-धर्म का वर्णन करते हुए कहा है--
यत: प्रवृत्तिर्भुतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
भगवान् ने वर्ण-धर्म का वर्णन करते हुए कहा है--
यत: प्रवृत्तिर्भुतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं
विन्दति मानव: ।। ( गीता १८ । ४६ )
`जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई
है, जिससे यह सर्व जगत् (जल से बर्फ की भाँती ) व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने
स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है ।`
इस मन्त्र के अनुसार वैश्य अपने वर्णोचित कर्म
व्यापार के द्वारा ही भगवान् को पूजकर परम सिद्धि पा सकते हैं । इस भावना से व्यापार करने वाले सरलता और सुगमता के साथ संसार का सब काम
सुचारू रूपसे करते हुए भी मनुष्य-जीवन के अन्तिम ध्येय को प्राप्त कर सकते हैं । लोभ या धन की इच्छासे न कर, कर्तव्यबुद्धि से व्यापार करना चाहिये । कर्तव्यबुद्धि से किये हुए कर्ममें पाप नहीं रह सकते । पाप होने का कारण लोभ और आसक्ति है । कर्तव्यबुद्धि में इनको
स्थान नहीं है । कर्तव्यबुद्धि के व्यापार से अन्त:करण की शुद्धि और ईश्वर की प्राप्ति होती है और उनसे भगवत्कृपा होने पर परमपद की सुलभता से प्राप्ति
होती है । परमपद-प्राप्ति करने की इच्छा न रखकर केवल
भगवत्-प्रीत्यर्थ व्यापार करनेवाला और भी उत्तम तथा प्रशंसनीय है ।
गीता उपर्युक्त मन्त्रके अनुसार जब यह विवेक हो जाता है कि सारा संसार ईश्वरसे
उत्पन्न है और वह ईश्वर ही समस्त संसार मे स्थित है, तब फिर उसका विस्मरण कभी नहीं
हो सकता । परमात्मा के इस चेतन और विज्ञानस्वरुप की नित्य
जागृति रहने के कारण माया या अन्धकार के कार्यरूप काम, क्रोध, लोभ मोहादि शत्रु
कभी उसके समीप ही नहीं आ सकते । प्रकाश में अन्धकार को स्थान कहाँ है ? व्यापार
में असत्य छल कपट आदि करने की प्रवृत्ति काम, लोभादि दोषों के कारण ही होती है । जब काम लोभादि का अभाव हो जाता है तब व्यापार स्वत: ही पवित्र बन जाता है । अब विचारणीय प्रश्न यह है कि उस व्यापार से ईश्वर-पूजा कैसे की जाय ? पूजा
यही है कि लोभ के स्थान पर ईश्वरप्रीति की भावना कर ली जाय । पतिव्रता रमणी के भाँती समस्त कार्य ईश्वर-प्रीत्यर्थ, ईश्वर के आज्ञानुसार
हो । ऐसे व्यापार-कार्य में किसी दोष को स्थान नहीं रह जाता और यदि कहीं भ्रम से
अनजानमें कोई दोष हो भी जाता है तो वह दोष नहीं समझा जाता । कारण, उसमें सकाम भाव नहीं है । यदि कोई मनुष्य स्वार्थ, मान-बड़ाई का सर्वथा त्याग
कर लोकसेवा कार्य में लग जाता है और कभी दैवयोग से उससे कोई भूल बन जाती है, तब भी
उसे कोई दोष नहीं देते और न उसे कोई दोष लगता है । यह स्वार्थत्याग----निष्काम भावका महत्त्व है । यदि कोई कहे कि स्वार्थ बिना व्यापार में प्रवृत्ति ही नहीं होगी, जब कोई
स्वार्थ ही नहीं तब व्यापार कोई क्यों करेगा ? इसके उत्तर मे यह कहा जाता है कि
स्वार्थ देखने की इच्छा हो तो इसमें बड़ा भारी स्वार्थ समाया हुआ है । अन्त:करण की शुद्धि होकर ज्ञान उत्पन्न होना और उससे परमात्मा की प्राप्ति हो
जाना क्या कम स्वार्थ है ? पर इस स्वार्थ की बुद्धि भी जितने अंशमें अधिक त्याग की
जाय, उतनी ही जल्दी सिद्धि होती है । स्वार्थ-बुद्धि हुए बिना लोग प्रवृत्त नहीं हो सकते,
इसीलिये यहाँ पर यह स्वार्थ बतलाया गया है, नहीं तो स्वार्थ के किसी भी कर्म में
प्रवृत्त होना बहुत ही उत्तम बात नहीं है । शेष अगले ब्लॉग में....
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]