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भक्त जनाबाई |
यदि यह शंका हो कि लोभ-बुद्धि रखे
बिना तो व्यापार मे नुकसान ही होगा, कभी लाभ होना संभव नहीं । यदि ऐसा होता तो फिर यह काम केवल धनी लोग ही कर सकते है, सर्वसाधारण के लिये
यह उपाय उपयुक्त नहीं है । पर ऐसी बात नहीं है । एक ईमानदार सच्चा गुमाश्ता मालिकके आज्ञानुसार मालिक के लिये बड़ी कुशलता से
आलस्य और प्रमाद छोड़कर दुकानका काम करता है, मालिक से अपनी उन्नति चाहने के सिवा
दुकानके किसी अन्य काम में उसका कोई स्वार्थ नहीं है । न उसे अन्य स्वार्थ-बुद्धि ही है । इस कार्य में कहीं उन्नति
मे बाधा नहीं आती । इसी प्रकार भक्त अपने भगवान् के प्रतिरूप स्वार्थका
आश्रय लेकर सब कुछ भगवान् का समझकर उसके आज्ञानुसार सारा कार्य करे तो उसकी उन्नति
मे कोई बाधा नहीं आ सकती । रही धनकी बात, सो धनवान नि:स्वार्थ बुद्धि से कार्य
कर सकता है, गरीब नहीं कर सकता, यह मानना भ्रममूलक है । दृष्टान्त तो प्राय: इसके विपरीत मिला करते हैं । धन तो नि:स्वार्थ भावमे बाधक होता है । जो स्वार्थबुद्धि से सर्वथा
छूटा हुआ हो उसकी बात तो दूसरी है, नहीं तो धन से अहंकार, ममता, लोभ और प्रमाद
उत्पन्न हो ही जाते हैं । न्याययुक्त नि:स्वार्थ व्यापार के लिये अधिक पूँजी
की भी आवश्यकता नहीं है । वास्तव मे इसमे थोड़ी या ज्यादा पूँजी प्रश्न नहीं है,
सारी बात निर्भर है कर्त्ता की बुद्धि पर । एक पूँजिपति नि:स्वार्थबुद्धि
न होने से बड़ी पूँजी के व्यापार से गरीबों की सेवा नहीं कर सकता, पर एक तैल, नमक बेचनेवाला गरीब दुकानदार नि:स्वार्थ बुद्धि होने के कारण संसार की सेवा करने में
समर्थ होता है । बड़ा व्यापारी पापबुद्धि से नरकों में जा सकता है
परन्तु पान-सुपारी बेचनेवाला नि:स्वार्थी भक्त, गरीब जनतारूप परमात्मा की सेवा कर
परमपद को प्राप्त कर सकता है ।
दुकानदार को यह बुद्धि रखनी चाहिये कि उसकी दूकान पर जो ग्राहक आता है वह
साक्षात् परमात्मा का ही स्वरुप है । जैसे लोभी दुकानदार झूठ, कपट करके दिखौवा आदर-सत्कार
या प्रेम करके हर तरहसे ग्राहक को ठगना चाहता है वैसे ही इस दुकानदार को चाहिये कि
वह सच्ची बातें यथार्थ समझाकर उसका जिस बात में हित होता हो वही करे, लोभी की दूकान
पर जैसे ग्राहक बार-बार नहीं आया करते; क्योंकि आये ग्राहक को ठग लेने में ही वह
अपना कर्तव्य समझता है और ऐसा ही दुकानदार आजकल चतुर और कमाऊ समझा जाता है, इसी
प्रकार यह समझकर कि ग्राहक रूपी परमात्मा बार-बार नहीं आते, इनकी जो कुछ भी सेवा
मुझसे हो जाय सो थोड़ी है, उसके साथ पूरी तरहसे उसके हितको देखते हुए पूर्ण सत्यता
का व्यवहार करना चाहिये ।शेष अगले ब्लॉग में...
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
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[ पुस्तक
'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर
]