अब आगे.....
संसार का सब धन परमात्मा का है, हम सब उसकी
प्रजा है, परमात्माने योग्यतानुसार सबको खजाना संभालकर हमे उसकी रक्षा और यथायोग्य
व्यवहार की आज्ञा दी है ।
अतएव कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं है
। जिसके पास ज्यादा रूपये है और ज्यादा काम जिम्मे है वह बड़ा है और कमवाला
छोटा है सो बात नहीं है । छोटे-बड़े सबको एक दिन सब कुछ दूसरेको सौंपकर मालिक
घर जाना पड़ता है । जो मालिक का काम ईमानदारी से चलाकर जाता है वह सुख
से जाता है और तरक्की पाता है, मालिकके मन चढ़ जाने पर मालिकके बराबर का हिस्सेदार
भी बन सकता है और जो बेईमानी से मालिक की चीज को अपनी समझकर कर्तव्य भूलकर छल-कपट
करके जाता है वह दण्ड का और अवनति का पात्र होता है ।
एक पिता के कई पुत्र है, सबका दूकान मे समान हिस्सा है, पर सब अलग-अलग काम
देखते है । एक सेठाई करता है, एक दुकानदारी देखता है, एक रोकड़
का काम देखता है, एक घर का काम देखता है, एक रूपये उगाहने का काम करता है, सभी उस
फार्म कि उन्नति में लगे हैं । पिता ने काम बाँट दिये हैं उसी तरह काम कर रहे हैं । इनमे हिस्से के हिसाब मे कोई छोटा-बड़ा नहीं है, परन्तु अलग-अलग अपना काम न
कर यदि सभी सेठाई या सभी दुकानदारी करनी चाहे तो सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है । इसी प्रकार परम पिता परमात्मा के सब सन्तान भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं, जो
उसका सेवक बनकर नि:स्वार्थ भाव से उसके आज्ञानुसार कार्य करता है वही उसको अधिक
प्यारा है ।
नाटक में नाटक का स्वामी यदि स्वयं एक मामूली
चपरासी का पार्ट करता है, तो वह छोटा थोड़े ही बन जाता है । जिसके जिम्मे जो काम हो उसे वही करना चाहिये । जिसका कार्य सुन्दर और स्वार्थ रहित होगा उसीपर प्रभु प्रसन्न होंगे ।
अतएव प्राणिमात्र को परमात्मा का स्वरुप और पूजनीय समझकर झूठ, कपट, छलको
त्याग कर स्वार्थ-बुद्धि से रहित हो अपने-अपने कार्यद्वारा सर्वव्यापी परमात्मा की पूजा करनी चाहिये । मनमें सदा यह भावना रखनी चाहिये कि किस तरह मैं इस
रूप में मेरे सामने प्रत्यक्ष रहनेवाले परमात्मा की सेवा अधिक कर सकूँ । इस भावना से व्यापार आप ही सुधर सकता है और इससे एक व्यापारी दुकानपर बैठा
हुआ कुछ भी व्यापार करता हुआ सरलता के साथ परमात्मा की सेवा कर उन्हें प्रसन्न कर
सकता है । व्यापारी, दलाल, वकील, डॉक्टर, जमींदार, किसान सभी
कोई अपनी-अपनी आजीविका के पेशेद्वारा इस बुद्धि से परमात्मा की सेवा कर सकते हैं ।
सारी बात नीयत पर निर्भर है । मालिक की पूँजी बनी रहे और आनेवाले महाजनोंकी हर तरह
से सेवा होती रहे, इसी भावसे सबको सबके साथ बर्ताव करना चाहिये । अपने-अपने कर्मोंद्वारा ग्राहक को सरलता के साथ नि:स्वार्थ बुद्धि से सुख
पहुँचाना ही स्वकर्म के द्वारा परमात्मा की पूजा करना है और इस पूजारूप भक्तिसे
परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है, इसमे कोई सन्देह नहीं । इस भाव को जाग्रत रखने के लिये भगवान् के नाम-जप की आवश्यकता है । जैसे बिगुल की आवाज से सिपाही सावधान रहते हैं ऐसे ही नाम-जप की बिगुल बजाते
रहकर मन-इन्द्रियों को सदा सावधान रखना चाहिये और बुद्धि के द्वारा
श्रीमद्भागवतगीताके उपर्युक्त १८।४६ के मन्त्र का बारम्बार मनन और विचारकर तदनुसार
अपने को बनाने की चेष्टा करनी चाहिये । ऐसा हो जानेपर अनायास ही `व्यापारके द्वारा मुक्ति`
हो सकती है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]