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(९)
मांसाहार स्वाभाविक ही स्वास्थ्य का नाशक है, इस बात को अब तो यूरोप के भी अनेकों
विद्वान और डाक्टर लोग मानने लगे हैं | इसके सिवा एक बात यह भी है कि जिन
पशु-पक्षियों का मांस मनुष्य खाता है, उनमें जो पशु-पक्षी रोगी होते हैं, उनके रोग
के परमाणु मांस के साथ ही मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उसे भी रोगी बना डालते हैं
| इंगलैंड के एक प्रसिद्द डाक्टर ने लिखा था कि ‘इंगलैंड में कैंसर के रोगी
दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं | एक इंगलैंड में इस भयानक रोग से तीस हजार मनुष्य
प्रतिवर्ष मरते हैं | यह रोग मांसाहार से होता है | यदि मांसाहार इसी तेजी से बढ़ता
रहा तो इस बात का भय है कि भविष्य की संतान में ढाई करोड मनुष्य इस रोग के शिकार
होंगे |’
मांस बहुत
देर से पचता है, इससे मांसाहारी मनुष्य
प्राय: पेट की बीमारियों से पीड़ित रहते हैं | इसके सिवा अन्य भी अनेक प्रकार के
रोग मांसाहार से होते हैं | शास्त्रों में भी कहा है कि मांसाहारियों की आयु घट
जाती है |
यस्माद्
ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते |
तस्माद्विवर्जयेंमांसं
य इच्छेद् भूतिमात्मन: || (महा०अनु० ११५|३३ )
‘हिंसाजनित
पाप हिंसा करने वालों की आयु को नष्ट कर देता है , अतएव अपना कल्याण चाहने वालों
को मांस भक्षण नहीं करना चाहिए |’
(१०)
यद्यपि शास्त्रों में कहीं-कहीं मांस का वर्णन आता हैं; परन्तु उनमें मांस त्याग
के सम्बन्ध में बहुत ही जोरदार वाक्य हैं | प्राय: सभी शास्त्रों ने मांस-भक्षण की
निंदा करके मांस त्याग को अत्युत्तम बतलाया है | ऐसे हजारों वचन हैं , उनमें कुछ
थोड़े-से यहाँ दिए जाते हैं-
मनुस्मृति-
योऽहिंसकानि
भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया |
स
जीवंश्च मृतश्चैव न क्कचित्सुख मेधते | समुत्पत्तिं
च मांसस्य वधबंधौ च देहिनाम् |
प्रसमीक्ष्य
निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् | (५/४५, ४९)
‘जो
निरपराध जीवों की अपने सुख की इच्छा से हिंसा करता है वह जीता रहकर अथवा मरने के
बाद भी (इहलोक अथवा परलोकमें ) कहीं सुख नहीं पाता | मांस की उत्त्पति का विचार
करते हुए प्राणियों की हिंसा और बंधन आदि के दुःख को देखकर मनुष्य को सब प्रकार के
मांस-भक्षण का त्याग कर देना चाहिए |’
यमस्मृति –
सर्वेषामेव
मांसानां महान् दोषस्तु भक्षणे |
निवर्तने
महत्पुन्यमिति प्राह प्रजापति: ||
‘प्रजापति
का कथन है कि सभी प्रकार के मांसो के भक्षण में महान दोष है और उससे बचने में महान
पुण्य है |’ ...शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
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