※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

मांस-भक्षण निषेध


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(९) मांसाहार स्वाभाविक ही स्वास्थ्य का नाशक है, इस बात को अब तो यूरोप के भी अनेकों विद्वान और डाक्टर लोग मानने लगे हैं | इसके सिवा एक बात यह भी है कि जिन पशु-पक्षियों का मांस मनुष्य खाता है, उनमें जो पशु-पक्षी रोगी होते हैं, उनके रोग के परमाणु मांस के साथ ही मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उसे भी रोगी बना डालते हैं | इंगलैंड के एक प्रसिद्द डाक्टर ने लिखा था कि ‘इंगलैंड में कैंसर के रोगी दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं | एक इंगलैंड में इस भयानक रोग से तीस हजार मनुष्य प्रतिवर्ष मरते हैं | यह रोग मांसाहार से होता है | यदि मांसाहार इसी तेजी से बढ़ता रहा तो इस बात का भय है कि भविष्य की संतान में ढाई करोड मनुष्य इस रोग के शिकार होंगे |’


मांस बहुत देर से पचता है, इससे  मांसाहारी मनुष्य प्राय: पेट की बीमारियों से पीड़ित रहते हैं | इसके सिवा अन्य भी अनेक प्रकार के रोग मांसाहार से होते हैं | शास्त्रों में भी कहा है कि मांसाहारियों की आयु घट जाती है |

यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते |
तस्माद्विवर्जयेंमांसं य इच्छेद् भूतिमात्मन: || (महा०अनु० ११५|३३ )

‘हिंसाजनित पाप हिंसा करने वालों की आयु को नष्ट कर देता है , अतएव अपना कल्याण चाहने वालों को मांस भक्षण नहीं करना चाहिए |’

(१०) यद्यपि शास्त्रों में कहीं-कहीं मांस का वर्णन आता हैं; परन्तु उनमें मांस त्याग के सम्बन्ध में बहुत ही जोरदार वाक्य हैं | प्राय: सभी शास्त्रों ने मांस-भक्षण की निंदा करके मांस त्याग को अत्युत्तम बतलाया है | ऐसे हजारों वचन हैं , उनमें कुछ थोड़े-से यहाँ दिए जाते हैं-

मनुस्मृति-

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया |
                        स जीवंश्च मृतश्चैव न क्कचित्सुख मेधते        |                      समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबंधौ च देहिनाम् |
                 प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् | (५/४५, ४९)

‘जो निरपराध जीवों की अपने सुख की इच्छा से हिंसा करता है वह जीता रहकर अथवा मरने के बाद भी (इहलोक अथवा परलोकमें ) कहीं सुख नहीं पाता | मांस की उत्त्पति का विचार करते हुए प्राणियों की हिंसा और बंधन आदि के दुःख को देखकर मनुष्य को सब प्रकार के मांस-भक्षण का त्याग कर देना चाहिए |’

यमस्मृति –

सर्वेषामेव मांसानां महान्  दोषस्तु भक्षणे |
निवर्तने महत्पुन्यमिति प्राह प्रजापति: ||

‘प्रजापति का कथन है कि सभी प्रकार के मांसो के भक्षण में महान दोष है और उससे बचने में महान पुण्य है |’ ...शेष अगले ब्लॉग में

 नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]