गत ब्लॉग से आगे.....
महाभारत
अनुशासन पर्व –
लोभाद्वा
बुद्धिमोहाद्वा बल वीर्यार्थमेव च |
संसर्गादथ
पापानामधर्मरुचिता नृणाम् ||
स्वमांसम्
परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति |
उद्विग्नवासो
वसति यत्र यत्राभिजायते ||
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो
मार्गैर्बुधोऽधम: |
हन्याज्जन्तून्
मांसगृध्नु: स वै नरकभाङ्नर: || ( ११५/३५-३६ ,४७)
स्वमांसं
परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति |
नास्ति
क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नर: || (११६|७)
शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशय: |
भक्षणे
तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते || (११६/९)
‘लोभ
से, बुद्धि के मोहित हो जाने से अथवा पापियों का संसर्ग करने से बल और पराक्रम की
प्राप्ति के लिए मनुष्यों की (हिंसारूप) अधर्म में रूचि होती है |’
‘जो
मनुष्य अपने मांस को दूसरे के मांस से बढ़ाना चाहता है, वह जिस किसी योनि में जन्म
ग्रहण करता है वहाँ दुःखी होकर ही रहता है |’
‘जो
अज्ञानी और अधम पुरुष देवपूजा, यज्ञ तथा वेदोक्त मार्ग का आसरा लेकर मांस के लोभ
से जीवों की हिंसा करता है वह नरकों को प्राप्त होता है |’
‘जो
मनुष्य दूसरों के मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है उससे बढ़कर कोई नीच नहीं है,
वह अत्यंत निर्दयी है |’
‘हे
तात ! वीर्य से मांस की उत्पत्ति होती है इसमें कोई संदेह नहीं है (इसलिए यह बहुत
घृणित पदार्थ है ) इसके भक्षण में महान् दोष और त्याग से पुण्य होता है |’
मांस न खाने का फल
मनुस्मृति-
वर्षे
वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समा: |
मांसानि
च न खादेद्यस्तयो: पुण्यफलं समम् || (५/५३)
‘जो
सौ वर्षतक प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो किसी प्रकार का मांस नहीं खाता उन
दोनों को बराबर पुण्य होता है |’
महाभारत
अनुशासन पर्व –
शरण्य:
सर्वभूतानां विश्वास्य: सर्वजन्तुषु |
अनुद्वेगकरो
लोके न चाप्युद्विजते सदा || (११५/२८)
अधृश्य:
सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुज: सदा |
भवत्यभक्षयन्
मांसं दयावान् प्राणिनामिह ||
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वश: |
मांसस्याभक्षणे
धर्मो विशिष्ट इति न: श्रुति: || (११५/४२-४३)
‘
मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रय
स्थान एवं विश्वासपात्र बन जाता है; उससे संसार में किसी को उद्वेग नहीं होता और न
उसको ही किसी से उद्वेग होता है | उसे कोई भी भय नही पहुँचा सकता , वह दीर्घायु
होता है और सदा निरोग रहता है | मांस के न खाने से जो पुण्य होता है उसके समान
पुण्य न तो सुवर्ण दान से होता है, न गोदान से और न भूमिदान से होता है |’
.....शेष अगले ब्लॉग में
.....शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]