※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

मांस-भक्षण निषेध


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महाभारत अनुशासन पर्व –

लोभाद्वा बुद्धिमोहाद्वा  बल वीर्यार्थमेव  च |
संसर्गादथ पापानामधर्मरुचिता  नृणाम् ||
स्वमांसम् परमांसेन यो  वर्धयितुमिच्छति |
उद्विग्नवासो वसति यत्र यत्राभिजायते ||
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैर्बुधोऽधम: |
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नु: स वै नरकभाङ्नर: || ( ११५/३५-३६ ,४७)

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति |
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नर: || (११६|७)

शुक्राच्च  तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशय: |
भक्षणे तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते || (११६/९)

‘लोभ से, बुद्धि के मोहित हो जाने से अथवा पापियों का संसर्ग करने से बल और पराक्रम की प्राप्ति के लिए मनुष्यों की (हिंसारूप) अधर्म में रूचि होती है |’

‘जो मनुष्य अपने मांस को दूसरे के मांस से बढ़ाना चाहता है, वह जिस किसी योनि में जन्म ग्रहण करता है वहाँ दुःखी होकर ही रहता है |’

‘जो अज्ञानी और अधम पुरुष देवपूजा, यज्ञ तथा वेदोक्त मार्ग का आसरा लेकर मांस के लोभ से जीवों की हिंसा करता है वह नरकों को प्राप्त होता है |’

‘जो मनुष्य दूसरों के मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है उससे बढ़कर कोई नीच नहीं है, वह अत्यंत निर्दयी है |’

‘हे तात ! वीर्य से मांस की उत्पत्ति होती है इसमें कोई संदेह नहीं है (इसलिए यह बहुत घृणित पदार्थ है ) इसके भक्षण में महान् दोष और त्याग से पुण्य होता है |’

मांस न खाने का फल

मनुस्मृति-

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन  यो यजेत शतं समा: |
मांसानि च न खादेद्यस्तयो: पुण्यफलं समम् || (५/५३)

‘जो सौ वर्षतक प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो किसी प्रकार का मांस नहीं खाता उन दोनों को बराबर पुण्य होता है |’

महाभारत अनुशासन पर्व –

शरण्य: सर्वभूतानां विश्वास्य: सर्वजन्तुषु |
अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा || (११५/२८)

अधृश्य: सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुज: सदा |
भवत्यभक्षयन् मांसं दयावान् प्राणिनामिह ||
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च  सर्वश: |
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति न: श्रुति: || (११५/४२-४३)

‘ मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रय स्थान एवं विश्वासपात्र बन जाता है; उससे संसार में किसी को उद्वेग नहीं होता और न उसको ही किसी से उद्वेग होता है | उसे कोई भी भय नही पहुँचा सकता , वह दीर्घायु होता है और सदा निरोग रहता है | मांस के न खाने से जो पुण्य होता है उसके समान पुण्य न तो सुवर्ण दान से होता है, न गोदान से और न भूमिदान से होता है |’
.....शेष अगले ब्लॉग में

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]