※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

माँस-भक्षण निषेध

संत तुकाराम 

अब आगे.....

उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध हो जाता है कि मांस भक्षण सभी प्रकार से त्यागके योग्य है | मेरा नम्र निवेदन है कि जो भाई प्रमाद वश मांस खाते हों वे इसपर भली-भांति विचारकर मनुष्यत्व के नाते, दया और न्याय के नाते, शरीर-स्वास्थ्य और धर्म की रक्षा के लिए और भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए, इन्द्रिय संयम कर मांस-भक्षण सर्वथा छोड़कर, सब जीवों को अभयदान देकर स्वयं अभयपद प्राप्त करने की योग्यता-लाभ करें | जो भाई मेरी प्रार्थना पर ध्यान देकर मांस-भक्षण का त्याग कर देंगे, उनका मैं आभारी रहूँगा और उनकी बड़ी दया समझूँगा | महात्मा तुलाधार श्रीजाजलिमुनि से कहते हैं-

यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किञ्चित् कथञ्चन |
अभयं सर्वभूतेभ्य: स प्राप्नोति सदा मुने ||
यस्मादुद्विजते विद्वन् सर्वलोको वृकादिव |
क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचरा: ||
तपोभिर्यज्ञदानैश्र्च वाक्ये: प्रज्ञाश्रितैस्तथा |
प्राप्नोत्यभयदानस्य यद्यत्फलमिहाश्रुते ||
लोके य: सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम् |
स सर्वयज्ञैरीजान: प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् |
न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्र्चन || (महा० शांति० २६२|२४|,२५,२८,२९,३०)

‘हे मुनिवर ! जिस मनुष्य से किसी भी प्राणी को किसी प्रकार कष्ट नहीं पहुंचता उसे किसी भी प्राणी से भय नहीं रह जाता | जिस प्रकार बडवानल से भयभीत होकर सभी जलचर जंतु समुद्र के तीर पर इकट्ठे हो जाते है उसी प्रकार हे  विद्वद्वर ! जिस मनुष्य से भेड़िये की भांति सब लोग डरते हैं वह स्वयं भय को प्राप्त होता है |’

‘अनेक प्रकार के तप, यज्ञ और दान से तथा प्रज्ञा युक्त उपदेश से जो फल मिलता है वही फल जीवों को अभयदान देने से प्राप्त होता है |’

‘जो मनुष्य इस संसार के सभी प्राणियों को अभयदान दे देता है; वह सारे यज्ञो का अनुष्ठान कर चुकता है बदले में उसे सबसे अभय प्राप्त होता है, अतएव प्राणियों को कष्ट न पहुंचाने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म ही नहीं है |’

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]