अब आगे......
स्वयं भगवान् श्रीकृष्णजी कहते
हैं---
त्वमेव सर्वजनीन मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया
त्रिगुणात्मिका ।।
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो
निर्गुणा स्वयम ।
परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या
नित्या सनातनी ।।
तेज:स्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
सर्वस्वरूपा सर्वेशा
सर्वाधारा परात्परा ।।
सर्वबीजस्वरुपा च सर्वपुज्या
निराश्रया ।
सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगला ।।
(ब्रह्मवैवर्तपू० प्रकृति० २।६६।७—१०)
`तुम्ही विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्ही
सृष्टि की उत्पति के समय आद्याशक्तिके रूपमें विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से
त्रिगुणात्मिका बन जाती हो । यद्यपि वस्तुतः तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि
प्रयोजनवश सगुण हो जाती हो । तुम परब्रह्म-स्वरुप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो ।
परम-तेज स्वरुप और भक्तोंपर अनुग्रह करनेके हेतु शरीर धारण करती हो । तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरीसर्वाधार एवं परात्पर हो । तुम सर्वबीज-स्वरुप, सर्वपुज्या एवं आश्रयरहित हो । तुम सर्वज्ञ, सर्वप्रकार से मंगल करनेवाली एवं सर्व मंगलोकी भी मंगल हो ।`
उस ब्रह्मस्वरूप चेतनशक्तिके दो स्वरुप हैं---एक निर्गुण और दूसरा सगुण । सगुण के भी दो भेद हैं—एक निराकार और दूसरा साकार । इसीसे सारे संसार की उत्पति होती है । शेष अगले ब्लॉग में........
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
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[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]