※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

शक्तिका रहस्य


अब आगे......

स्वयं भगवान् श्रीकृष्णजी कहते हैं---

त्वमेव      सर्वजनीन         मूलप्रकृतिरीश्वरी

त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका ।।

कार्यार्थे  सगुणा त्वं  च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम

परब्रह्मस्वरूपा   त्वं   सत्या  नित्या  सनातनी ।।

तेज:स्वरूपा     परमा        भक्तानुग्रहविग्रहा 

सर्वस्वरूपा    सर्वेशा     सर्वाधारा    परात्परा ।।

सर्वबीजस्वरुपा        सर्वपुज्या    निराश्रया

सर्वज्ञा         सर्वतोभद्रा       सर्वमंगलमंगला ।।

(ब्रह्मवैवर्तपू० प्रकृति० २६६७—१०)

 `तुम्ही विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्ही सृष्टि की उत्पति के समय आद्याशक्तिके रूपमें विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो यद्यपि वस्तुतः तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण हो जाती हो तुम परब्रह्म-स्वरुप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो । परम-तेज स्वरुप और भक्तोंपर अनुग्रह करनेके हेतु शरीर धारण करती हो तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरीसर्वाधार एवं परात्पर हो तुम सर्वबीज-स्वरुप, सर्वपुज्या एवं आश्रयरहित हो तुम सर्वज्ञ, सर्वप्रकार से मंगल करनेवाली एवं सर्व मंगलोकी भी मंगल हो `

  उस ब्रह्मस्वरूप चेतनशक्तिके दो स्वरुप हैं---एक निर्गुण और दूसरा सगुण सगुण के भी दो भेद हैं—एक निराकार और दूसरा साकार इसीसे सारे संसार की उत्पति होती है शेष अगले ब्लॉग में........

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]