※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

शक्तिका रहस्य


अब आगे......

संसार कि उत्पति का कारण कोई परमात्मा को और कोई प्रकृति तथा कोई परमात्मा और प्रकृति दोनों को बतलाते हैं विचार करके देखने से सभी का कहना ठीक है जहाँ संसार कि रचयिता प्रकृति है वहाँ समझाना चाहिये कि पुरुष के सकाश से ही गुणमयी प्रकृति संसार को रचती है

मयाध्येक्षण प्रकृति सूयते सचराचरम्

हेतुनानेन    कौन्तेय   जगद्विपरिवर्तते ।।(गीता९१०)

 अर्थात `हे अर्जुन !मुझ अधिष्ठाता के सकाश से यह मेरी माया चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे गये हेतु से ही यह संसार आवागमनरूप चक्रमें घुमता है `

 जहाँ संसार का रचयिता परमेश्वर है वहाँ सृष्टि के रचाने में प्राकृत द्वार है

प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः

भुतप्राममिमं   कृत्स्नमवशं   प्रकृतेर्वशात् ।। (गीता ९८)

अर्थात ` अपनी त्रिगुणमयी माया को अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ `

   वास्तव में प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही चराचर संसार कि उत्पति होती है

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम

संभव:   सर्वभूतानां   ततो   भवती    भारत ।। (गीता १४३)

 अर्थात `हे अर्जुन ! मेरी महद्ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों कि योनी है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनी में चेतनरूप बीजको स्थापन करता हूँ उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों कि प्राप्ति होती है `

 क्योंकि विज्ञानानंदघन, गुणातीत परमात्मा निर्विकार होने के कारण उसमें क्रिया का अभाव है और त्रिगुणामयी माया जड़ होने के कारण उसमें भी क्रिया का अभाव है इसलिये परमात्मा के सकाश से जब प्रकृति स्पन्द होता है तभी संसार की उत्पत्ति होती है अतएव प्रकृति और परमात्मा के संयोग से ही संसार की उत्पत्ति होती है अन्यथा नहीं महाप्रलय में कार्यसहित तीनों गुण कारण में लय हो जाते हैं तब उस प्रकृति कि अवयक्त-स्वरुप साम्यावस्था हो जाती है उस समय सारे जीव स्वभाव, कर्म और वासना सहित उस मूल प्रकृति में तन्मय-से हुए अव्यक्तरूप से स्थित रहते हैं प्रलयकाल कि अवधि समाप्त होनेपर उस माया-शक्ति में ईश्वर के सकाश से स्फूर्ति होती है तब विकृत अवस्था को प्राप्त हुई प्रकृति तेईस तत्त्वों के रूप में परिणत हो जाती है तब उसे व्यक्त कहते हैं फिर ईश्वर के सकाश से ही वह गुण, कर्म और वासना के अनुसार फल भोगने के लिये चराचर जगत को रचती है शेष अगले ब्लॉग में......

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]