अब आगे......
संसार कि उत्पति का कारण कोई
परमात्मा को और कोई प्रकृति तथा कोई परमात्मा और प्रकृति दोनों को बतलाते हैं । विचार करके देखने से सभी का कहना ठीक है । जहाँ संसार कि रचयिता प्रकृति है वहाँ समझाना चाहिये कि पुरुष के सकाश से ही
गुणमयी प्रकृति संसार को रचती है ।
मयाध्येक्षण प्रकृति सूयते
सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।(गीता९।१०)
अर्थात `हे अर्जुन !मुझ अधिष्ठाता के सकाश से यह
मेरी माया चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे गये हेतु से ही यह संसार
आवागमनरूप चक्रमें घुमता है ।`
जहाँ संसार का रचयिता परमेश्वर है वहाँ सृष्टि
के रचाने में प्राकृत द्वार है ।
प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि
पुनः पुनः ।
भुतप्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।। (गीता ९।८)
अर्थात ` अपनी त्रिगुणमयी माया को
अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बारंबार उनके
कर्मों के अनुसार रचता हूँ ।`
वास्तव में प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही चराचर संसार कि उत्पति
होती है ।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ
दधाम्यहम ।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवती भारत
।। (गीता १४।३)
अर्थात `हे अर्जुन ! मेरी महद्ब्रह्मरूप प्रकृति
अर्थात त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों कि योनी है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और
मैं उस योनी में चेतनरूप बीजको स्थापन करता हूँ । उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों कि प्राप्ति होती है ।`
क्योंकि विज्ञानानंदघन, गुणातीत परमात्मा
निर्विकार होने के कारण उसमें क्रिया का अभाव है । और त्रिगुणामयी माया जड़ होने के कारण उसमें भी क्रिया का अभाव है । इसलिये परमात्मा के सकाश से जब प्रकृति स्पन्द होता है तभी संसार की उत्पत्ति
होती है । अतएव प्रकृति और परमात्मा के संयोग से ही संसार की
उत्पत्ति होती है अन्यथा नहीं । महाप्रलय में कार्यसहित तीनों गुण कारण में लय हो
जाते हैं तब उस प्रकृति कि अवयक्त-स्वरुप साम्यावस्था हो जाती है । उस समय सारे जीव स्वभाव, कर्म और वासना सहित उस मूल प्रकृति में तन्मय-से हुए
अव्यक्तरूप से स्थित रहते हैं । प्रलयकाल कि अवधि समाप्त होनेपर उस माया-शक्ति में
ईश्वर के सकाश से स्फूर्ति होती है तब विकृत अवस्था को प्राप्त हुई प्रकृति तेईस
तत्त्वों के रूप में परिणत हो जाती है तब उसे व्यक्त कहते हैं । फिर ईश्वर के सकाश से ही वह गुण, कर्म और वासना के अनुसार फल भोगने के लिये
चराचर जगत को रचती है । शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]