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त्रिगुणामयी प्रकृति
और परमात्मा का परस्पर आधेय और आधार एवं व्याप्य-व्यापक-सम्बन्ध है । प्रकृति आधेय और परमात्मा आधार है । प्रकृति व्याप्य और
परमात्मा व्यापक है । नित्य चेतन, विज्ञानानंदघन परमात्मा के किसी एक अंश
में चराचर जगत के सहित प्रकृति है । जैसे तेज, जल, पृथ्वी के सहित वायु, आकाश के आधार है
वैसे ही यह परमात्मा के आधार है । जैसे बादल आकाश से व्याप्त है वैसे ही परमात्मा से
प्रकृतिसहित यह सारा संसार व्याप्त है ।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।। (गीता ९।६)
अर्थात् ` जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने-वाला महान् वायु सदा ही
आकाश में स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पत्ति वाले होनेसे सम्पूर्ण भूत
मेरे में स्थित है-ऐसे जान ।`
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं क्रिंत्स्रमेकांशेन स्थितो जगत् ।। (गीता १०।४२)
अर्थात ` अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से
तेरा क्या प्रयोजन है ? मैं इस सम्पूर्ण को अपनी योगमाया के एक अंश मात्र से धारण
करके स्थित हूँ ।`
ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किंच
जगत्यां जगत् । ( ईश०१)
अर्थात् `त्रिगुणामयी मायामें स्थित यह सारा
चराचर जगत् ईश्वर से व्याप्त है ।`
किन्तु उस त्रिगुणमयी मायासे वह लिपायमान नहीं
होता । क्योंकि विज्ञानानंदघन परमात्मा गुणातीत, केवल और सबका साक्षी है ।
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।
(श्वेता०६।११)
अर्थात् ` जो देव सब भूतों में छिपा हुआ,
सर्वव्यापक, सर्वभूतों का अन्तरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, सब भूतों का आश्रय,
सबका साक्षी, चेतन, केवल और निर्गुण यानी सत्व, रज, तम---इन तीनों गुणों से परे है
वह एक है ।` शेष अगले ब्लॉग में.......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]