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इस प्रकार गुणोंसे अतीत परमात्मा
को अच्छी प्रकार जानकर मनुष्य इस संसार के सारे दु:खों और क्लेशों से मुक्त होकर
परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । इसके जानने के लिये सबसें सहज उपाय उस परमेश्वर कि
अनन्य शरण है । इसलिये उस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द
परमात्मा कि सर्वप्रकार से शरण होना चाहिये ।
दैवी ह्योषा गुणमयी मम माया
दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां
तरन्ति ते ।। (गीता ७।१४)
अर्थात `क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी
दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मुझको ही निरंतर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर
जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं ।`
विधा-अविधारूप त्रिगुणमयी यह महामाया बड़ी
विचित्र है । इसे कोई अनादि, अनन्त और कोई अनादि, सांत मानते हैं । तथा कोई इसको सत् और कोई असत् कहते हैं एवं कोई इसको ब्रह्म से अभिन्न और कोई
इसे ब्रह्म से भिन्न बतलाते हैं । वस्तुतः यह माया बड़ी विलक्षण है, इसलिये इसको
अनिवर्चनीय कहा है ।
अविधा—दुराचार, दुर्गुणरूप, आसुरी, राक्षसी,
मोहिनी, प्रकृति, महत्तत्वका कार्यरूप यह सारा संसार दृश्यवर्ग इसीका विस्तार है ।
विधा----भक्ति, पराभक्ति, ज्ञान,
विज्ञान, योग, योगमाया, समष्टि, बुद्धि, शुद्ध बुद्धि, सूक्ष्म बुद्धि, सदाचार,
सद्गुणरूप दैवी सम्पदा यह सब इसीका विस्तार है ।
जैसे ईंधन को भस्म करके अग्नि
स्वत: शान्त हो जाता है वैसे ही अविद्याका नाश करके विद्या स्वत: ही शान्त हो जाती
है, ऐसे मानकर यदि माया को अनादि-सांत बतलाया जाय तब यह दोष आता है कि यह आज से
पहले ही सांत हो जानी चाहिये थी । यदि कहें भिवष्य में सांत होने वाली है तो फिर इससे
छूटने के लिये प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है ? इसके सांत होने पर सारे जीव
अपने आप ही मुक्त हो जायेंगे । फिर भगवान् किसलिए कहते हैं कि यह त्रिगुणमयी मेरी
माया तरनेमें बड़ी दुस्तर है; किन्तु जो मेरी शरण हो जाते हैं वे इस माया को तर कर
जाते हैं ।शेष अगले ब्लॉग में.....
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]