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यदि इस माया को अनादि, अनन्त
बतलाया जाय तो इसका सम्बन्ध भी अनादि अनन्त होना चाहिये । सम्बन्ध अनादि, अनन्त मान लेने से जीवका कभी छुटकारा हो ही नहीं सकता और
भगवान् कहते हैं कि क्षेत्र, क्षेत्र के अन्तर को तत्त्व से समझ लेने पर जीव मुक्त
हो जाता है----
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये
विदुर्यान्ति ते परम् ।। (गीता १३।३४)
अर्थात् `इस प्रकार क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ के भेदको तथा विकारसहित प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष
ज्ञाननेत्रोंद्वारा तत्त्व को जानते है वे महात्माजन परब्रह्मपरमात्मा को प्राप्त होते हैं ।`
इसलिये इस माया को अनादि, अनन्त भी नहीं माना जा सकता । इसे न तो सत ही कहा जा सकता है और न असत ही । असत तो इसलिये नहीं कहा सकता कि इसका विकार रूप यह सारा संसार प्रत्यक्ष
प्रतीत होता है और सत इसलिये नहीं बतलाया जाता कि यह दृश्य जडवर्ग सर्वदा
परिवर्तनशील होने के कारण इसकी नित्य सम स्थिति नहीं देखी जाती ।
इस मायाको परमेश्वर से अभिन्न भी नहीं
कह सकते, क्योंकि माया यानी प्रकृति जड, दृश्य, दुःख स्वरुप विकारी है और परमात्मा
चेतन, दृष्टा, नित्य, आनंदरूप और निर्विकार है । दोनों अनादि होने पर भी परस्पर इनका बड़ा भरी अन्तर है ।
मायां तू प्रकृति विद्यान्मायिनं
तू महेश्वरम् । (श्वेता० ४।१०)
`त्रिगुणमयी मायाको तो प्रकृति (तेईस तत्त्व
जडवर्गका कारण ) तथा मायापतिको परमेश्वर मानना चाहिये ।
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे
त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गुढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य:।।(श्वेता०५।१)
`जिस सर्वव्यापी, अनन्त, अविनाशी, परब्रह्म,
अन्तर्व्यापी, परमात्मामें विद्या, अविद्या, दोनों गूढ़ भाव से स्थित हैं । अविद्या, क्षर है, विद्या अमृत है (क्योंकि विद्या से अविद्या पर शासन
करनेवाला है वह परमात्मा दोनोसे ही अलग है ।`
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।(गीता १५।१८)
अर्थात् `क्योंकि मैं नाशवान्
जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी
उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें भी पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ ।`
तथा इस माया को परमेश्वर से भिन्न भी नहीं कह
सकते । क्योंकि वेद और शास्त्रों में इसे ब्रह्म का रूप बतलाया है । शेष अगले ब्लॉग में...
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
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