संत- महिमा
बच्चा कभी अभिमानवश यह सोचता है की मैं अपने ही पुरषार्थसे चढ़ता हूँ, तब माता कुछ दूर हटकर कहती है, 'अच्छा चढ़ '! परंतु सहारा न पानेसे वह चढ़ नहीं सकता ! गिरने लगता है और रोता है, तब माता दौड़कर उसे बचाती है! इसी प्रकार अपने प्रयत्नका अभिमान करनेवाला भी गिर सकता है, परन्तु यह ध्यान रहे, भगवान् की कृपाका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य सब कुछ छोड़कर हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ जाय, कुछ भी न करे! ऐसा मानना तो प्रभुकी कृपाका दुरूपयोग करना है ! जब माता बच्चेको ऊपर चढ़ाती है, तब सारा कार्य माता ही करती है,परन्तु बच्चेको माताके आज्ञानुसार चेष्टा तो करनी ही पड़ती है ! जो बच्चा माँके इच्छानुसार चेष्टा नहीं करता या उससे विपरीत करता है, उसको माता उसके हितार्थ डरती-धमकाती है तथा कभी-कभी मारती भी है!
इस मारमें भी माँके ह्रदयका प्यार भरा रहता है, यह भी उसकी परम दयालुता है! इसी प्रकार भगवान् भी दयापरवश होकर समय -समयपर हमको चेतावनी देते हैं! मतलब यह कि जैसे बच्चा अपनेको और अपनी सारी क्रियाओंको माताके प्रति सौंपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमें भी अपने-आपको और अपनी सारी क्रियाओंको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उनके चरणोंमें पड़ जाना चाहिये! इस प्रकार बच्चेकि तरह परम श्रद्धा और विश्वासके साथ जो अपने-आपको परमात्माकी गोदमें सौंप देता है, वही पुरुष परमात्माकी कृपाका इच्छुक और पात्र समझा जाता है और इसके फलस्वरूप वह परमात्माकी दयासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है ! सारांश यह कि परमात्माकी प्राप्ति परमात्माकी दयासे ही होती है; दया ही एकमात्र कारण है ! परन्तु यह दया मनुष्यको अकर्मण्य नहीं बना देती ! परमात्माकी दयासे ही ऐसा परम पुरषार्थ बनता है! जीवका अपना कोई पुरषार्थ नहीं,वह तो निमित्तमात्र होता है !