दान में
महत्त्व है त्याग का, वस्तु के मूल्य या संख्या का नहीं | ऐसी त्याग बुद्धि से जो
सुपात्र को यानी जिस वस्तु का जिसके पास अभाव है , उसे वह वस्तु देना और उसमे किसी
प्रकार की कामना न रखना उत्तम दान है | निष्काम भाव से किसी भूखे को भोजन और
प्यासे को जल देना सात्विक दान है | संत श्रीएकनाथजी की कथा आती है कि वे एक समय
प्रयाग से काँवर पर जल लेकर श्रीरामेश्वरम् चढ़ाने के लिए जा रहे थे | रास्ते में
जब एक जगह उन्होंने देखा कि एक गधा प्यास के कारण पानी के बिना तड़प रहा है , उसे
देखकर उन्हें दया आ गयी और उन्होंने उसे थोड़ा-सा जल पिलाया , इससे उसे कुछ चेत-सा
हुआ | फिर उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके सब जल उसे पीला दिया | वह गदहा उठकर चला गया |
साथियों ने सोचा कि त्रिवेणी का जल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्फल हों गयी |
तब एकनाथजी ने हँसकर कहा – ‘भाइयो, बार-बार सुनते हो, भगवान सब प्राणियों के अंदर
हैं, फिर भी ऐसे बावलेपन की बात सोचते हो ! मेरी पूजा तो यहीं से श्रीरामेश्वरम को
पहुँच गयी | श्रीशंकर जी ने मेरे जल को स्वीकार कर लिया |’