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थोड़े से जीवन के लिये ईश्वर पर
अविश्वास करके पाप बटोरना बड़ी मुर्खता है । आमदनी तो उतनी ही होती है
जितनी होनी होती है, पाप जरुर पल्ले बांध जाता है । पाप का पैसा ठहरता नहीं, इधर आता है उधर चला जाता है, बट्टाखाता जितना रहना
होता है उतना ही रहता है । लोग अपने मनमें ही धन आता हुआ देखकर मोहित हो जाते
हैं । पाप से धन पैदा होने कि धारणा बड़ी ही भ्रम मूलक है । इससे धन तो पैदा होता नहीं परन्तु आत्मा का पतन अवश्य होता है । लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं । जो अन्याय से धन कमाकर उसमें से थोडा-सा दान देकर
धर्मात्मा बनना और कहलाना चाहते हैं वे बड़े भ्रम में हैं । भगवान् के यहाँ इतना अन्धेर नहीं है, वहाँ सबकी सच्ची परख होती है ।
अतएव परमात्मापर विश्वास करके व्यापार में
झूठ-कपट को सर्वथा त्याग देना चाहिये । किसी भी चीज में दूसरी कोई चीज कभी नहीं मिलनी
चाहिये । वजन में ज्यादा करने के लिये रुई, पाट, गल्ले आदि
में पानी मिलाना या गीली जगह में रखना नहीं चाहिये । खाद्य पदार्थों में मिलावट करके लोगोंके स्वास्थ्य और धर्म को कभी नहीं
बिगाड़ना चाहिये । वजन, नाप और गिनती में न तो कम देना चाहिये और न
ज्यादा लेना चाहिये । नमूने के अनुसार ही मालका लेन-दें करना चाहिये । नमूने के अनुसार ही मालका लेन-दें अत्यन्त आवश्यक है ।
आढ़त ठहराकर किसी भी तरह से महाजनकी एक पाई
ज्यादा लेना बड़ा पाप है । इससे खूब बचना चाहिये । इसी प्रकार कमीशन के काममें भी धोखा देकर काम नहीं करना चाहिये । दलालको भी चाहिये कि वह सच्चा रुख बताकर लेने-बेचनेवाले को भ्रम से बचाकर
अपने हक़ और मेहनत का ही पैसा ले ।
हम जिसके साथ व्यवहार करे उसके साथ हमें वैसा
ही बर्ताव करना चाहिये जैसा अपने हित और स्वार्थ का ख्याल रखते है वैसा ही उसके
हित और स्वार्थ का ख्याल रखना चाहिये । सबसे उत्तम तो वह है कि जो अपना स्वार्थ छोड़कर पराया
हित सोचता है---दुसरे के स्वार्थ के लिये अपने स्वार्थ को त्याग देता है । व्यापार करनेवाला होनेपर भी ऐसा पुरुष वास्तव में साधु ही है । शेष अगले
ब्लॉग में.......
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]