अब आगे.......
आजकल सट्टे कि प्रवृत्ति देश में बहुत बढ़ गयी है
। सट्टे से धन, जीवन और धर्म को कितना धक्का पहुँच रहा है, इस बात पर देश के
मनस्वियों को विचार कर शीघ्र ही इसे रोकने का पूरा प्रयत्न करना चाहिये । पहले यह सट्टा अधिकतर मुंबई मे ही था और जगह कहीं कहीं बरसात के समय बादलों
के सौदा हुआ करते थे, परन्तु अब तो इसका विस्तार चारों ओर प्राय: सभी व्यापार
क्षेत्रों मे हो गया है । कुछ वर्षों पूर्व व्यापारी लोग सट्टे-फाटके से घृणा
करने और सट्टेबाजों के पास बैठने और उनसे बात करने में हिचकते थे, पर अब ऐसे
व्यापारी बहुत ही कम मिलते हैं जो सट्टा न करते हों । सट्टा उसें कहते हैं कि जिसमे प्राय: माल का लेनदेन न हो, सिर्फ समय पर
घटा-नफा दिया-लिया जाय । रुई, पाट, हेसियन, गल्ला, तिलहन, हुण्डी-शेयर और
चांदी आदि प्राय: सभी व्यापारी वस्तुओं का सट्टा होता है । सट्टेवालों के खर्चे अनाप-शनाप बढ़ जाते हैं । मेहनत कि कमाई से चित्त उखड़ जाता है । ये लोग पल-पल में लाखों के
सपने देखा करते हैं । झूठ-कपट को तो सट्टे का साथी ही समझना चाहिये । सट्टेवालों कि सदियों कि इज्जत आबरू घंटों में बर्बाद हो जाती है । सट्टे के कारण बड़े शहरों मे प्रतिवर्ष एक-न-एक आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयत्न
सुननेमें आते हैं । आत्महत्या के विचार तो शायद कई बार कितनों के ही मन
में उठते होंगे । सट्टेबाजों को आत्मिक सुख मिलना तो बहुत दूर कि बात
है, वे बेचारे गृहस्थ के सुख से भी वंचित रहते हैं ।कई लोगों का चित्त तो सट्टे में इतना तल्लीन रहता है कि उन्हें भूख, प्यास और
नींद तक का पता नहीं रहता । बीमार पड़ जाते हैं, बैचेनी से कहीं लुढ़क पड़ते हैं
और नींद मे उन्हें प्राय: सपने सट्टे के ही आता हैं । धर्म, देश, माता, पिता आदि कि सेवा तो हो ही कहाँ से, अपने स्त्री-बच्चों कि
भी पूरी सार-सम्हाल नहीं होती; घर में बच्चा बीमारी से सिसक रहा है, सहधर्मिणी
रोगसेव्याकुल है, सट्टेबाज विलायत के तार का पता लगाने बाड़ों में भटक रहे हैं । एक सज्जन ने यह आँखों देखी दशा वर्णन की थी । खेद है कि इस सट्टे को भी लोग
व्यापार के नाम से पुकारते हैं जिसमें न घर का पता है, न संसार का और न शरीरका । मेरी समझ से यदि इतनी तल्लीनता थोड़े समय के लिये भी परमात्मा हो जाय तो उससे
परमार्थ के मार्गमें अकथनीय उन्नति हो सकती है । इस सट्टे कि प्रवृत्ति से मजुरीके काम नष्ट हो रहे हैं । कला नाश हो रही है । इस अवस्था में यथासाध्य इसका प्रचार रोकना चाहिये । शेष अगले ब्लॉग में....
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]