※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

व्यापारसुधारकी आवश्यकता



अब आगे........

       इस सट्टे के सिवा एक जुआ घुड़दौड़का होता है, जिसमें बड़े-बड़े धनि-मानी लोग जा-जाकर बड़े चाव से दावँ लगाया करते हैं मनुमहाराज ने जीवोंके जुए को सबसे बड़ा पापकारी जुआ बतलाया है अतएव सट्टा, जुआ सब तरह से त्याग करने योग्य है यदि कोई भाई लोभवश या दोष समझकर भी आत्माकी कमजोरी से सर्वथा त्याग न कर सकें तो कम-से-कम घुड़दौड़ में बाजी लगाना तो बिलकुल ही बंद कर दें और सट्टे में बिना हुयी चीज माथे कर-कर बेचने का काम कभी न करें बिना हुए माथे कर-कर बेचने वाले का माल वास्तव में किसी को नहीं लेना चाहिये, इससे बड़ी भारी हानि होती है जो सट्टे की हानि समझकर भी उसका त्याग नहीं करता वह खुद अपनी हिंसा का साधन तो करता ही है, पर दूसरों को यथेष्ट नुकसान पहुंचाता है जो लोग `खेला`(कार्नर) वगैरह करके मालके दाम बेहद चढ़ा देते हैं वे बड़ा पाप करते हैं, अतएव खेला करनेवालों में कभी शामिल नहीं होना चाहिये, उसमें गरीबों की आह और उनका बड़ा शाप सहन करना पड़ता है

 कुछ ऐसे व्यापार होते हैं जिनमें बड़ी हिंसा होती है जैसे लाख, रेशम, चमडा आदि
  लाख कीड़ों से उत्पन्न होती है वृक्षों से लाल गोंद जैसे टुकड़े उत्तारे जाते हैं,  उसमें दो प्रकार के जीव रहते हैं एक तो बहुत बारीक होते हैं जो बरसात में गरमी से जहाँ लाख पड़ी होती है वहाँ निकल-निकल कर दीवारों पर चढ़ जाते हैं, दीवाल उन कीड़ों से लाल हो जाती है  दूसरे जीव लंबे कीड़े जैसे होते हैं, ये लाख के बीज समझे जाते हैं, इन असंख्य जीवों की बुरी तरह हिंसा होती है प्रथम तो लाख के धोनेमें ही असंख्य प्राणी मर जाते हैं फिर थैलियों मे भरकर जलती हुई भट्टी मे तपाया जाता है जिससे चपड़ा बनता है, जानवरों के खून का लाखवटिया बनता है जिस समय उसको तपाते हैं उस समय उसमें चटाचट शब्द होता है चारों ओर दुर्गन्ध फैली रहती है, पानी खराब हो जाता है जिससे बीमारियाँ फैलती हैं इस व्यवहार को करनेवाले अधिकांश वैश्य भाई ही हैं बड़े खेद की बात है मारवाड़ी समाज में इसी लाख की चूड़ियाँ सुहाग का प्रतीक समझकर स्त्रियाँ पहनती हैं, इन चूड़ियों को बनानेवाले मुँहमांगे दाम लेते हैं जिस लाख में इतनी हिंसा होती है, जो इतनी अपवित्र है उसकी चूड़ियों का तुरंत त्याग कर देना चाहिये

   इसी प्रकार रेशम के बनने में भी बड़ी हिंसा होती है रेशमा सहित कीड़े उबलते पानी मे डाल दिये जाते हैं, वे सब बेचारे उसमें झुलस जाते हैं, पीछे उन पर लिपटा हुआ रेशम निकाल लिया जाता है शेष अगले ब्लॉग में.....
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]