※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

व्यापारसुधारकी आवश्यकता





अब आगे.......

    चमड़े के लिये भारतवर्ष में कितनी गौ-हत्या होती है यहाँ बतलाना नहीं होगा अतएव लाख, रेशम और चमड़े का व्यापार और व्यवहार प्रत्येक धर्मप्रेमी सज्जन को त्याग देना चाहिये
   कुछ लोग केवल ब्याज का पेशा करते हैं यद्यपि ब्याज का पेशा निषिद्ध नहीं है परन्तु व्यापार के साथ रूपये का ब्याज उपजाना उत्तम है ब्याज के साथ व्यापार करने वाला कभी अकर्मण्य नहीं होता, आलसी और नितान्त कृपण भी नहीं होता उसमें व्यापार कुशलता आती है लडके-बच्चे काम सीखते हैं कर्मण्यता बढाती है अतएव केवल ब्याज का ही पेशा नहीं करना चाहिये परन्तु यदि कोई ऐसा नहीं कर सके तो लोभवश गरीबों को लूटना तो अवश्य छोड़ दे ब्याज के पेशेवाले गरीबों पर बड़ा अत्याचार किया करते हैं कम रूपये देकर ज्यादा का दस्तावेज लिखवाते हैं जरा-जरा-सी बातपर उनको तंग करते हैं ब्याज पर रुपया लेनेवाले लोगों की सारी कमाई ब्याज भरते-भरते पूरी हो जाती है कमाई ही नहीं, स्त्रियों का जेवर, पशु, धन, जमीन, घर-द्वार, सब उस ब्याज में चले जाते हैं ब्याज के पेशेवाले निर्दयता से उनके जमीन-मकान को नीलाम करवाकर गरीब स्त्री-बच्चों को राह का कंगाल निराधार बना देते हैं लोभसे यह सारे पाप होते हैं इन पापों की अधिक वृद्धि प्राय: केवल ब्याज का पेशा करने वालों के अत्यधिक लोभसे होती है अतएव ब्याज कमानेवालों को कम-से-कम लोभ से अन्याय तो नहीं करना चाहिये
     यथासाध्य विदेशी वस्त्र और अन्यान्य विदेशी वस्तुओं के व्यापार का त्याग करना चाहिये
  सबसे पहली और अन्तिम बात यह है कि झूठ, कपट, छलका त्यागकर, दूसरेको किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचाकर  न्याय और सत्यता के साथ व्यापार करना चाहिये यह तो व्यापार-शुद्धि की बात संक्षेप से कही गयी इतना तो अवश्य ही करना चाहिये परन्तु यदि वर्णधर्म मानकर निष्कामभाव से व्यापार के द्वारा परमात्मा की पूजा की जाय तो इसीसे परमपद की प्राप्ति भी हो सकती है

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]