भली और बुरी–दोनों
ही बाते समाज में रहती है | कभी
भली बढती है तो कभी बुरी | परिवर्तन
होता ही रहता है | यह ठीक
नहीं की पुरानी सभी बाते बुरी ही होती है अथवा नयी सब बाते अच्छी ही होती है | अच्छी-बुरी दोनों में ही है | मनुष्य
को विवेक-विचार तथा साहस के साथ बुरी का त्याग और अच्छी का ग्रहण करना चाहिये | जो मनुष्य मिथ्या आग्रह से किसी बात पर अड़ जाता है, उसका विकास नहीं होता | यही
हाल समाज का है |हमारे
हिन्दू समाज में भी अच्छी-बुरी बाते है – जो
अच्छी है उनके सम्बन्ध में तो कुछ कहना नहीं है; जो बुरी है – फिर
चाहे वे नई हो या पुरानी – उन्ही
पर विचार करना है | यहाँ
संक्षेप में कुछ ऐसी बुराइयो पर विचार किया जाता है जिनका त्याग समाज के लिए
आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक और आर्थिक सभी दृष्टीईयो से परम आवश्यक है|
(१) - रहन-सहन
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(२) - खान-पान
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(३) - वेश-भूषा
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(४) - रस्म-रिवाज
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(५) - चरित्रगठन और
स्वास्थ्य
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(६) - कुविचारो का
प्रचार
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(७) - बहम और मिथ्या
विश्वास
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(८) - व्यवहार-बर्ताव
|
(९) - व्यापार के नाम पर
जुआ
|
(१) रहन-सहन
समय,वातावरण तथा स्थिति के अनुसार रहन-सहन में परिवर्तन तो होता ही है, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिये जो घातक हो | इस समय हम देखते है की समाज का रहन-सहन तीव्र गति से पाश्चात्य ढंग का होता
चला आ रहा है | पाश्चात्य रहन-सहन बहुत अधिक खर्चीला होने से हमारे लिए आर्थिक दृष्टी से तो
घातक है ही, हमारी सभ्यता और सदाचार के विरुद्ध होने से आध्यात्मिक और नैतिक पतन का भी
हेतु है | उदहारण के लिए – जूता
पहने घरो में घूमना, एक साथ
बैठ कर खाना, खाने में काटे-छुरी का उपयोग करना,टेबल-कुर्सी
पर बैठ कर खाना, जूतियो के कई जोड़े रखना, रोज
चर्बी-मिश्रित साबुन लगाना, खाने-पीने
की चीजो में संयम न रखना, भोजन
करके कुल्ला न करना,मल-मूत्र
त्याग के बाद मिट्ठी के बदले साबुन से हाथ धोना या बिलकुल ही न धोना, फैशन के पीछे पागल रहना, बहुत
आधिक कपड़ो का संग्रह करना, बार-बार
पोशाक बदलना, आदि-आदि इनका त्याग होना आवश्यक है |
नारायण – नारायण – नारायण – नारायण –नारायण
शेष अगले ब्लॉग में.......