※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष

क्रमश:


वेश-भूषा सादा, कम खर्चीला, सुरुचि उत्पन्न करने वाला, पवित्र और संयम बढाने होना चाहीये ।आजकल ज्यो-ज्यो फैशन बढ़ रहा है, त्यों-त्यों खर्च भी बढ़ रहा है । सादा मोटा वस्त्र किसी को पसंद नहीं। जो खादी पहनते है उनमे भी एक तरह की बनावट आने लगी है । वस्त्रों  में पवित्रता होनी चाहिये । विदेशी और मीलों के बने वस्त्रों  में चर्बी की माँड लगती है, यह बात सभी जानते है । देश की हाथ की कारीगरी मीलों की प्रतियोगिताओ में नष्ट होती है ।इससे गरीब मारे जाते है, इसलिए मीलके बने वस्त्र नहीं पहनने चाहिये । विदेशी वस्त्रों  का व्यवहार तो देश की दरिद्रता का प्रधान कारण है ही । रेशमी वस्त्र जीवित कीड़ो को उबाल कर उनसे निकाले हुए सूत से बनता है, वह भी अपवित्र और हिंसायुक्त है ।

वस्त्रों  में सबसे उत्तम हाथ से काते हुए सूत की हाथ से बनी खादी है । परन्तु इसमें भी फैशन नहीं आना चाहिये ।खादी हमारे संयम और स्वल्प व्यय के लिए हैफैशन और फिजूलखर्ची के लिए नहीं । खादी में फैशन और फिजूलखर्ची आ जाएगी तो इसमें भी अपवित्रता आ जाएगी । मीलके बने हुए वस्त्रों  की अपेक्षा तो मीलके सूत से हाथ-करघे पर बने वस्त्र उत्तम है; क्योंकि उसके बुनाइ के पैसे गरीबो के घर में जाते है और उसमे चर्बी भी नहीं लगती ।

स्त्रियो के गहनों में भी फैशन का जोर है । आजकल असली सोने के सादे गहने प्राय: नहीं बनाये जाते । हलके सोने के और मोतीयो के फैशनेबल गहने बनाये जाते है, जिसमे मजदूरी ज्यादा लगती है, बनवाते समय मिलावट का अधिक डर रहता है और जरुरत पढने पर बेचने के समय बहुत ही कम कीमत मिलती है । पहले स्त्रियो के गहने ठोस सोने के होते थे, जो विपति के समय काम आते थे । अब वह बात प्राय: चली गयी । इसी प्रकार कपड़ो में फैशन आ जाने से कपडे ऐसे बनते है, जो पुराने होने पर किसी काम के नहीं आते और उनमे लगी हुई जरी, सितारे, कलाबत्तू आदि के विशेष दाम मिलते है । ऐसे कपड़ो के बनवाने में जो अपार समय और धन व्यर्थ जाता है सो तो जाता ही है ।

नये पढ़े-लिखे बाबुओ और लड़कियों में तो इतना फैशन आ गया है कि वे खर्च के मारे तंग रहने पर भी वेश-भूषा में खर्च कम नहीं कर सकते । साथ ही शरीर की बनावट और सौंदर्य-वृद्धि की चीजे साबुन, तेल, फुलेल, इत्र, एशेंस, क्रीम, लैवेंडर, सेंट, पाउडर आदि इतने बरते जाने लगे है और उनमे एक-एक व्यक्ति के पीछे इतने पैसे लगते है कि उतने पैसो से एक गरीब गृहस्थी का काम चल सकता है । इन चीजो के व्यवहार से आदत बिगड़ती है, अपवित्रता आती है और स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । धर्म की दृष्टि से तो ये सब चीजे त्याज्य है ही । एक बात और है, सौदर्य की भावना में छिपी काम-भावना रहती है ।जो स्त्री-पुरुष अपने को सुन्दर दिखलाना चाहते है वे कामभाव का विस्तार बल, बुद्धि और वीर्य के नाश के द्वारा अपना और समाज का बड़ा अपकार करते है ।

शेष अगले ब्लॉग में.......

 

नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर