※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 28 नवंबर 2012

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष

रस्म-रिवाज

क्रमश:
रस्म-रिवाजो में सुधार चाहनेवाली सभाओं के द्वारा जहाँ एक और एक बुरी प्रथा मिटती है तो उसकी जगह दो दूसरी नयी आ जाती है । जब तक हमारा मन नहीं सुधर जाता तब तक सभाओं के प्रस्ताव से कुछ नहीं हो सकता । खर्च घटाने के लिये सभाओं में बड़ी पुकार मची । खर्च कुछ घटा भी, परन्तु नये-नये इतने रिवाज बढ़ गए की खर्च की रकम पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गयी । दहेज़ की प्रथा बड़ी भयंकर है, इस बात को सभी मानते है । धारा-सभाओं में इस प्रथा को बंद करने के लिए बिल भी पेश होते है । चारो और से पुकार भी काफी होती है, परन्तु यह प्रथा ज्यो-की-त्यों नहीं-नहीं-बढे हुए रूप में वर्तमान है और इसका विस्तार अभी जरा भी रूका भी नहीं है । साधारण स्थिति के गृहस्थ के लिए तो एक कन्या का विवाह करना मृत्यु की पीड़ा भोगने के बराबर-सा है । आजकल मोल-तौल होते है । दहेज़ का इकरार तो पहले हो चुकता है, तब कही सम्बन्ध होता है । दहेज़ के दुःख से व्यथित माता-पिताओं की मानसिक पीड़ा को देखकर बहुत सी सहृदया कुमारियो ने आत्महत्या करके समाज के इस बूचडखाने पर अपनी बलियाँ चढ़ा दी है । इतना होने पर भी यह पाप अभी तक बढ़ता ही जा रहा है । सुना था दहेज़ के ड़र से राजपूतो में कन्याओं को जीते-जी मार दिया जाता था । अब भी बहुत-से समाजों में जो कन्या का तिरस्कार होता है, उसके जीवन का मूल्य नहीं समझा जाता, बीमार होने पर उसका उचित ईलाज नहीं कराया जाता, यहाँ तक की कन्या का जन्म होते ही कई माता-पिता तो रोने लगते है, दहेज़ की पीड़ा ही इसका प्रधान करना है ।इस समय धर्मभीरु साहसी सज्जनों की आवशयकता है जो लोभ छोड़ कर अपने लडको के विवाह में दहेज़ लेने से इनकार कर दे, या कम-से-कम लेवे । लड़के वालो के स्वार्थत्याग से ही यह पाप रुकेगा । अन्यथा यदि चलता रहा तो समाज की बड़ी भीषण स्थिति होनी सम्भव है ।

 

विवाह वगैरह में शास्त्रीय प्रसंगों को कायम रखते हुए जहा तक हो सके कम-से-कम रस्मे रखनी चाहिये और वे भी ऐसी, जो सुरुचि और सदाचार उत्त्पन्न करने वाली हो, कम खर्च की हो और ऐसी हो जो साधारण गृहस्थो के द्वारा भी आसानी से उत्त्पन्न की जा सके ।अवश्य देने के वस्त्र और अलंकार भी ऐसे हो, जिनमे व्यर्थ धन-व्यय न हुआ हो; सौ रूपये की चीज, किसी भी समय अस्सी-नब्बे रूपये कीमत हो तो दे ही दे । दस-बीस प्रतिशत से अधिक घाटा हो तो, ऐसा गहना चढाना तो जान-बुझ कर आभाव और दुःख को निमंत्रण देना है । इसके साथ ही संख्या में भी चीजे जयादा न हो और फैशन से बची हुई हो ।

 

विवाह आदि में वेश्याओ के नाच, फूलवाडी,आतिशबाजी,भडुओं के स्वांग, गंदे मजाक, स्त्रिओ के गंदे गाने, सिनेमा, नाटक, जुआ,शराब आदि तो सर्वथा बंद होने ही चाहिये । जहाँ तक हो गांजा, भांग, सिगरेट,तम्बाकू, बीडी आदि मादक वस्तुओ की तथा सोडावाटर बर्फ की मेहमानदारी भी नहीं होनी चाहिये । बारातियों की संख्या थोड़ी होनी चाहिये और उनके स्वागत में कम-से-कम खर्च हो,सादगी और सदाचार की रक्षा हो, ऐसा प्रयत्न स्वयं बारातियो को करना चाहिये । लड़कीवालों के घर जाकर उससे अनाप-शनाप मांग करना और न मिलने पर नाराज़ होना एक तरह का कमीनापन ही है ।

 

शेष अगले ब्लॉग में.......

 

 


नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर