※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष




चरित्रगठन और स्वास्थ्य

क्रमश:

असंयम,अमर्यादित खान-पान और गंदे साहित्य आदि के कारण समाज के चरित्र और स्वास्थ्य का बुरी तरह से ह्रास हो रहा है | बीडी-सिगरेट पीना, दिनभर पान खाते रहना, दिन में पांच-सात बार चाय पीना, भांग, तम्बाकू, गांजा, चरस आदि का व्यवहार करना, उतेजक पदार्थो का सेवन करना, विज्ञापनी बाजीकरण दवाये खाना, मिर्च-मसाले, चाट और मिठाइयां खाना, कुरुचि उत्पन्न करने वाली गन्दी कहानियो और उपन्यास-नाटको का पढना,श्रृंगार के काव्य और कोकशास्त्रादी के नाम से प्रचलित पुस्तकों को पढना, गंदे समाचारपत्र पढना, अश्लील चित्रों को देखना, पुरुषो का स्त्रियों में और स्त्रियों का पुरुषो में अमर्यादित आना-जाना सिनेमा देखना | श्रृंगारी गाने सुनना और प्रमादी, विषयी, व्यभिचारी तथा नास्तिक पुरुषो का संग करना आदि कई दोष समाज में आ गए है | कुछ पुराने थे, कुछ नये सभ्यता के नाम पर आ घुसे है, जो समाज रूप शरीर में घुन की तरह लगकर उसका सर्वनाश कर रहे है | काम-सम्बन्धी साहित्य पढना,श्रृंगार-रस के काव्यो तथा नाटक-उपन्यासों का अध्यन् करना,सिनेमा देखना, सिनेमा में युवक-युवतियो के श्रृंगार के अभिनय करना और निसंकोच एक साथ रहना तो आजकल सभ्यता का एक निर्दोष अंग माना जाता है | कला के नाम पर कितना अनर्थ हो जाये, सभी क्षम्य है |

लड़कपन से ही बालक-बालिकाओ का फैशन से रहना, चरित्रहीन नौकर-नौकरानियो के संसर्ग में रहना,श्रृंगार की पुस्तके पढना, श्रृंगार करना,सिनेमा देखना, स्कूल-कालेज में लड़के-लडकियो का एक साथ पढना, कॉलेज-जीवन में असंयमपूर्ण छात्रावासों में रहना आदि बाते चरित्रनाश में प्रधान कारण होती है और आज के युग में इन्ही का विस्तार देखा जाता है | दुःख तो यह है की ऐसा करना आज समाज की उन्नति के लक्षणों के अंतर्गत आ गया है |

रात-भर जागना, प्रात:काल से लेकर दिन के नौ-दस बजे तक सोना, चाहे सो खाना, ऐश-आराम की सामग्रिया जुटाने और उनका उपभोग करने में ही लगे रहना, विलासिता और अमीरी को जीवन का अंग मानना, भद्दी-भद्दी दिल्लगियां करना, केशो और जूतों को सजाने में ही घंटो बिता देना, दांत से नख छिलते रहना, ईश्वर और धर्म का मखौल उडाना, संत-महात्माओ की निंदा करना, शास्त्रों और शास्त्रनिर्माता ऋषि-मुनियों का अनादर करना, संध्या-प्रार्थना करने का नाम भी न लेना, माता-पिता को कभी भूलकर भी प्रणाम न करना, केवल शरीर का आराम चाहना, मेहनत का काम करने से जी चुराना और लजाना, थोड़ी देर में हो जाने लायक काम में अधिक समय बिता देना,कर्तव्य कर्म में आलस्य करना और व्यर्थ के कामो में समय नष्ट कर देना आदि दोष जहा समाज में फ़ैल रहे हों, वह चरित्र-निर्माण, स्वास्थ्य-लाभ, धर्म और आत्मोनती की संभावना कैसे हो सकती है ? इन सब दोषों को छोड़कर समाज संयम और सदाचार के पथ पर चले इसके लिए सबको प्रयत्न करना चाहिये | इन बातों के दोष बतलाने चाहिये और स्वयं वैसा आचरण करके आदर्श स्थापित करना चाहिये | केवल वाणी से कहना छोड़कर यदि लोग स्वयं करना शुरु कर दे तो बहुत जल्दी कामयाबी हो सकती है |

शेष अगले ब्लॉग में.......

 

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर