※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष



|| श्री हरी: ||

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष

(९) व्यापार के नाम पर जुआ

क्रमश:

जीवन अधिक खर्चीला तथा आड़म्बर पूर्ण हो जाने से धन की लालसा समाज में बहुत बढ़ गयी है |धन एक साथ प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने के लिए सटटा (Speculation) ही एकमात्र साधन सूझता है, इसी से आजकल रुई, पाट, हैसियन, सोना,चांदीआदि पदार्थो का सटटा-फाटका खूब चलता है | माल डिलीवर न लेकर जहा केवल भाव पटाया जाता हो, वह सब एक प्रकार का जुआ ही है | वर्षा का सौदा, आकँफरक(आखर, दड़ा) लगाना-खाना, बाजी लगा कर तास, चौपड़,शतरंज आदि खेलना,घुड दौड़ पर बाजी लगाना, लाटरी डालना, चिट्ठी खेला करना आदि जुए तो प्रसिद्ध ही है| इस व्यसन में पडकर लोग बर्बाद हो जाते है | घाटा लगने पर बाप-दादो की जगह-जमीन,घर, स्त्रिओ के गहने आदि चीजे बंधक रखकर तबाह हो जाते है और रात-दिन चिंता के मारे जलते रहते है |कही-कही तो आत्महत्या तक कर बैठते है | नफा होने पर व्यर्थ खर्च आदि बढकर पतन के कारण बन जाते है | इस व्यसन की अधिकता बुद्धि, स्वास्थ्य, समाज और धर्म के लिए भी घातक होती है | बड़े बड़े लोग इसके फेर में पढ़ कर बर्बाद हो चुके है |इतना ही नहीं, इससे लोक-परलोक दोनों भ्रष्ट होते है, इसलिए शास्त्रकारों ने सजीव और निर्जीव पदार्थो को लेकर किसी प्रकार भी जुआ खेलना बड़ा भरी पाप और राज्य के लिए घातक बतलाया है | भगवान् मनु ने तो जुआरियो को देश से निकाल देने आदि की आज्ञा दी है |

इसलिए अपना हित चाहने वाले पुरुषो को इस विनाशकारी दुर्व्यसन से सर्वथा बचना चाहिए |

उपयुक्त विवेचन वर्तमान समय की थोड़ी-सी-कुरितियो, फिजूलखर्ची और दुर्व्यसनो का एक साधारण दिग्दर्शन मात्र है | इसके अतिरिक्त देश, समाज और जाती में भी जो-जो हानिकर घटक और पतनकारक दुर्व्यसन, फिजूलखर्ची एवं बुरी प्रथाये प्रचलित है, उनको हटाने के लिए भी सब लोगो को विवेकपूर्वक तत्परता के साथ प्रयत्न करना चाहिए |
 
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर