|| श्री हरी: ||
समाज के
कुछ त्याग करने योग्य दोष
(९) व्यापार के नाम पर जुआ
क्रमश:
जीवन अधिक खर्चीला तथा आड़म्बर पूर्ण हो जाने से धन की लालसा समाज में बहुत बढ़ गयी है |धन एक साथ प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने के लिए सटटा (Speculation) ही एकमात्र साधन सूझता है, इसी से आजकल रुई, पाट, हैसियन, सोना,चांदीआदि पदार्थो का सटटा-फाटका खूब चलता है | माल डिलीवर न लेकर जहा केवल भाव पटाया जाता हो, वह सब एक प्रकार का जुआ ही है | वर्षा का सौदा, आकँफरक(आखर, दड़ा) लगाना-खाना, बाजी लगा कर तास, चौपड़,शतरंज आदि खेलना,घुड दौड़ पर बाजी लगाना, लाटरी डालना, चिट्ठी खेला करना आदि जुए तो प्रसिद्ध ही है| इस व्यसन में पडकर लोग बर्बाद हो जाते है | घाटा लगने पर बाप-दादो की जगह-जमीन,घर, स्त्रिओ के गहने आदि चीजे बंधक रखकर तबाह हो जाते है और रात-दिन चिंता के मारे जलते रहते है |कही-कही तो आत्महत्या तक कर बैठते है | नफा होने पर व्यर्थ खर्च आदि बढकर पतन के कारण बन जाते है | इस व्यसन की अधिकता बुद्धि, स्वास्थ्य, समाज और धर्म के लिए भी घातक होती है | बड़े –बड़े लोग इसके फेर में पढ़ कर बर्बाद हो चुके है |इतना ही नहीं, इससे लोक-परलोक दोनों भ्रष्ट होते है, इसलिए शास्त्रकारों ने सजीव और निर्जीव पदार्थो को लेकर किसी प्रकार भी जुआ खेलना बड़ा भरी पाप और राज्य के लिए घातक बतलाया है | भगवान् मनु ने तो जुआरियो को देश से निकाल देने आदि की आज्ञा दी है |
इसलिए अपना हित चाहने
वाले पुरुषो को इस विनाशकारी दुर्व्यसन से सर्वथा बचना चाहिए |
उपयुक्त विवेचन वर्तमान
समय की थोड़ी-सी-कुरितियो, फिजूलखर्ची और दुर्व्यसनो का एक साधारण दिग्दर्शन मात्र
है | इसके
अतिरिक्त देश, समाज और
जाती में भी जो-जो हानिकर घटक और पतनकारक दुर्व्यसन, फिजूलखर्ची एवं बुरी प्रथाये प्रचलित है, उनको हटाने
के लिए भी सब लोगो को विवेकपूर्वक तत्परता के साथ प्रयत्न करना चाहिए |
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल
गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस
गोरखपुर
