|| श्री हरी ||
समस्त
प्राणी, पदार्थ, क्रिया और
भाव का सम्बन्ध भगवान के साथ जोड़ कर साधन करने से साधक के ह्रदय में उत्साह, समता, प्रसन्नता, शान्ति और
भगवान् की स्मृति सब समय रह सकती है | इससे भगवान् में परम श्रद्धा-प्रेम हो जाता है एवं
भगवान् की प्राप्ति सहज में हो सकती है | ‘जो कुछ भी है , सब भगवान् का है और मैं भी भगवान् का हूँ, भगवान्
सबमे व्यापक है (गीता १८ | ४६), इसलिए सबकी सेवा ही भगवान् की सेवा है; में जो कुछ
कर रहा हूँ, वह सब कुछ
भगवान् की प्रेरणा के अनुसार भगवान् के लिए ही कर रहा हूँ ,‘भगवान् ही
मेरे परम प्यारे और परम हितैषी है’ – इस प्रकार के भाव से अपने घर या दूकान के काम को अथवा
किसी भी धार्मिक संस्था के काम को अपने प्यारे भगवान् का ही काम समझ कर और स्वयं
भगवान् का ही होकर काम करने से साधक को कभी उकताहट नहीं होती,प्रत्येक
चित में धैर्य, उत्साह, प्रसन्नता
और शांन्ति उत्तरोतर बढती रहती है | यदि नहीं बढती तो गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिये कि
इसमें क्या कारण है ? खोज करने पर पता लगेगा की श्रद्धा-विश्वास की कमी ही
इसमें कारण है | इस कमी की
निवृत्ति के लिए साधक को भगवान् के शरण हो कर उनसे करुणापुर्वक स्तुति-प्रार्थना
करनी चाहिये और भगवान् के गुण,प्रभाव, तत्व, रहस्य को सम्झना चाहिए |’ (यह सरल उपाय है |)
गीता प्रचार का काम तो
प्रत्यक्ष भगवान् का ही काम है, इसमें कोई शंका की बात ही नहीं है | जो मनुष्य
श्रीमदभगवदगीता के अर्थ और भाव को समझ कर गीता का प्रचार करता है,उसका उससे
उद्धार हो जाता है और भगवान् उसपर बहुत प्रसन्न होते है | इसके लिए गीता के अट्ठारवे अध्याय के ६८वे , ६९वे
श्लोको को देखना चाहिये |
‘जो पुरुष मुझमे परम प्रेम करके इस परम रहस्य-युक्त गीता
शास्त्र को मेरे भक्तो में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा इसमें कोई संदेह नहीं है | इससे बढ़ कर
मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे
बढ़ कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं |’
जो मनुष्य इन दोनों
श्लोको के अर्थ और भाव को भलीभाँती समझ जाता है, उसका तो सारा जीवन ही गीता प्रचार में व्यतीत होना
चाहिये | वर्तमान
में जो कुछ भी गीता का प्रचार हमारे-देखने सुनने में आता है,उसका भी
प्रधान कारण इन दो श्लोको के अर्थ और भाव को जानने का प्रभाव ही है |
वस्तुत:गीता का प्रचार
भगवान् का ही कार्य हैं और यह भगवान की विशेष कृपा से प्राप्त होता हैं | रूपये खर्च
करने से यह नहीं मिलता |
शेष अगले ब्लॉग में...
नारायण !
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६,
संख्या ३, पन्ना
न० ५६६, गीताप्रेस, गोरखपुर
