|| श्री हरी ||
भगवदर्थ
कर्म तथा भगवान की दया
भगवान् का काम करना – उनकी आज्ञा
का पालन करना – भगवान् की
सेवा है | वास्तव में
इस काम को भगवान की सेवा समझ कर करने से अवश्य ही प्रसन्नता तथा शांन्ति प्राप्त
हो सकती है | यदि किसी
को नहीं मिलती है तो, ऐसा मानना पड़ेगा की उसने इस काम को भगवान की सेवा समझा
ही नहीं | यदि कोई
मनुष्य महात्मा को महात्मा जानकार उनके कार्य को,उनकी आज्ञा की पालन को उनकी सेवा समझ कर करता है तो उसके
हृदय में भी इतना आनन्द होता है की वह उसमे समाता ही नहीं, तो फिर भगवान की सेवा से परम प्रसन्नता और शांति प्राप्त
हो – इसमें तो
कहना ही क्या है ?
गीता प्रचार का कार्य
करने वाले के चित्त में यदि भगवान की स्मृति, प्रसन्नता, उत्साह,प्रेम और शांन्ति नहीं रहती है तो उन्हें इसके कारण की
खोज करनी चाहिये एवं जो दोष दिखे, उसे भगवान की दया का आश्रय लेकर दूर करना चाहिये | भगवान की
दया सब पर अपार है, उसको पूर्णता न समझने के कारण ही हम लोग प्रसन्नता और
शांन्ति की प्राप्ति से वंचित रहते हैं | हमलोगों पर जो भगवान की जो अपार – पूर्ण दया
है, उसके शताशं
को भी हम नहीं समझते हैं | किन्तु न समझ में आने पर भी हम लोगो को अपने उपर भगवान
की अपार दया मानते रहना चाहिये | ऐसा करने से वह आगे जा कर समझ में आ सकती हैं |
दया के इस तत्व को भली
भांति समझने के लिए यहाँ एक द्रष्टान्त दिया जाता है – एक क्षत्रिय बालक राज्य की सहायता और व्यवस्था से एक महाविद्यालय
में अध्ययन करता था |उसके माता-पिता उसे सदा यही उपदेश दिया करते थे की इस देश के राजा उच्चकोटि
के ज्ञानी, योगी
महापुरुष है |वे
हेतुरहित दयालु है है | उनकी हमलोगों पर बड़ी भरी दया है | हमलोगों का
देहान्त हो जाये तो तुम चिन्ता मत करना; क्योकि महाराजा साहब की दया तुम पर हमलोगों की दया की
अपेक्षा अतिशय अधिक है | माता पिता के इस उपदेश के अनुसार वह ऐसा ही मानता था | समय आने पर
उसके माता-पिता चल बसे, परन्तु वह बालक दुखित नहीं हुआ |
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६, संख्या ३, पन्ना न० ५६६, गीताप्रेस, गोरखपुर
