※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

भगवदर्थ कर्म तथा भगवान की दया


 

|| श्री हरी ||

भगवदर्थ कर्म तथा भगवान की दया
 

क्रमश:

विद्यालय के सहपाठी बालको ने उससे पूछा –‘तुम्हारे माता-पिता मर गए, फिर भी तुम्हारे चेहरे पर खेद नहीं, क्या बात है ? अब तुम्हारा पालन-पोषण कौन करेगा?’ क्षत्रिय बालक ने कहा–‘मुझे शोक क्यों होता? मेरा तो माता-पिता से भी बढ़ कर मुझपर दया और प्रेम करनेवाले हमारे परम हितैषी महाराज साहब है | महाराज साहब उच्च कोटि के भक्त और ज्ञानी महापुरुष हैं | मैं तो उन्ही पर निर्भर हूँ |’ बालक की बात सुन कर वहाँ के प्रधानाध्यापक को बड़ा आश्चर्य हुआ की देखो, इस बालक के ह्रदय में महाराज साहब के प्रति कितनी श्रद्धा-भक्ति है | वे प्रधानाध्यापक राज्य की कौसिल के सदस्य भी थे | एक दिन जब कौंसिल की बैठक हुई, तब वे भी उसमे उपस्थित थे | उस दिन महाराजा साहब ने कहा – ‘अपने देश में कोई अनाथ बालक हो तो बतलाये, उसका प्रबंध राज्य की और से सुचारू रूप हो जाना उचित है|’ कौंसिल के कई सदस्यों ने उसी क्षत्रिय बालक का नाम बतलाया | इस पर राजा ने सबकी सम्मति से उस बालक के लिए खाने-पिने का सब प्रबंध कर दिया और उसके कच्चे घर को पक्का बनाने का आदेश में दे दिया | पढाई का प्रबंन्ध तो पहले से राज्य की और से था ही |

कुछ ही दिनों के बाद जब राजा की आज्ञा से राजकर्मचारी उसके कच्चे घर को पक्का बनाने के लिए तोड़ रहे थे, तब उस क्षत्रिय बालक के एक सहपाठी ने दौड़कर उसे सूचना दी की तुम्हारे घर को राजकर्मचारी तोड़ कर बर्बाद कर रहे है | यह सुनकर वह बालक बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा – ‘अहा ! महाराजा साहब की मुझ पर बड़ी दया है | संभव है, वे पुराना तुड़वाकर नया पक्का घर बनवावे |’ उसकी यह बात सुनकर प्रधानाध्यापक आश्चर्यचकित हो गये और सोचने लगे – ‘देखो, इस बालक को कितना प्रबल विश्वास है !महाराज पर कितनी अटूट श्रदा है |’
 

   पुन:दूसरी बार कौंसिल की बैठक में प्रधानाध्यापक सम्मिलित हुये, तब राजा ने प्रसन्नता पूर्वक एक प्रस्ताव रखा की मैं वृद्ध हो गया हूँ | मेरे संतान नहीं है | अत:युवराज पद किसको दू? इसके योग्य कौन है ? इसपर प्रधानाध्यापक ने बतलाया – ‘वह क्षत्रिय बालक गुण, आचरण, विधा और स्वभाव में सबसे बढकर है | वह राजभक्त हैं और आप पर तो उसकी अपार श्रद्धा है |’ इस बात को दुसरे सदस्यों ने भी प्रसन्नता पूर्वक समर्थन किया | राजा ने सर्वसम्मति से उस क्षत्रिय बालक को ही युवराज पद दे दिया
 
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६, संख्या ३, पन्ना न० ५६७, गीताप्रेस, गोरखपुर