|| श्री हरी ||
दुसरे दिन राजा के
मंत्री और कुछ उच्चपदाधिकारी उस क्षत्रिय बालक के घर पर गए |उस सबको
आते देख उस क्षत्रिय बालक ने उनका आदर-सत्कार किया और कहा - ‘में आपकी
क्या सेवा करू ?’ पदाधिकारियो
के कहा – ‘महाराज
साहब की आप पर बड़ी भरी दया है |’ बालक बोला – ‘यह मैं पहले से ही जानता हूँ की महाराज की मुझ पर अपार
दया है | इसी कारण
आपलोगों की भी मुझ पर बड़ी दया है |’ पदाधिकारीयो ने कहा – ‘हम तो आपके सेवक है,आपकी दया चाहते है |’ बालक बोला – ‘आप ऐसा कहकर मुझे लज्जित न कीजिये | मैं तो
आपका सेवक हूँ | महाराजा
साहब की मुझ पर दया है – इसको मैं अच्छी तरह जानता हूँ |’ पदाधिकारीयो के कहा – ‘आप जो जानते है, उससे कही बहुत अधिक उनकी दया है |’ क्षत्रिय
बालक ने पुछा – ‘क्या
महाराजा साहब ने मेरे विवाह का प्रबंध कर दिया हैं?’ तब उन्होंने कहा –‘विवाह का प्रबंध ही नहीं, महाराजा साहब की तो आप पर अतिशय दया हैं |’ बालक ने
पुन: पूछा –‘क्या
महाराजा साहब ने मुझको दो-चार गावों की जागीरदारी दे दी हैं ?’ पदाधिकारीयो
ने कहा –‘वह तो कुछ
नहीं,उनकी आप पर
जो दया है, उनकी आप
कल्पना भी नहीं कर सकते |’
इसपर बालक ने निवेदन
किया –‘उनकी मुझपर
कैसी दया हैं, इसे आप ही
कृपा करके बतलाईये|’उन्होंने कहा –‘आपको महाराजा साहब ने युवराज पद दे दिया है | इसलिए हम
आपकी दया चाहते है |’ यह सुनकर क्षत्रिय बालक हर्ष में इतना मुग्ध हो गया उसे
अपने आप का भी होश नहीं रहा |
इस द्रष्टान्त को
अध्यात्मविषय में यो घटाना चाहिये की भगवान ही ज्ञानी महापुरुष राजा है | श्रद्धालु
साधक ही क्षत्रिय बालक है | उपदेश देने वाले गुरुजन ही माता-पिता है| सत्संगी
साधकगण ही सहपाठी बालक है | भगवत्प्रेमी महापुरुष ही कौंसिल के सदस्य प्रधानाध्यापक
है |
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६, संख्या ३, पन्ना न० ५६८, गीताप्रेस, गोरखपुर
