※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

भगवदर्थ कर्म तथा भगवान की दया



|| श्री हरी ||

भगवदर्थ कर्म तथा भगवान की दया
 

क्रमश:

दुसरे दिन राजा के मंत्री और कुछ उच्चपदाधिकारी उस क्षत्रिय बालक के घर पर गए |उस सबको आते देख उस क्षत्रिय बालक ने उनका आदर-सत्कार किया और कहा - में आपकी क्या सेवा करू ?’ पदाधिकारियो के कहा – ‘महाराज साहब की आप पर बड़ी भरी दया है |’ बालक बोला – ‘यह मैं पहले से ही जानता हूँ की महाराज की मुझ पर अपार दया है | इसी कारण आपलोगों की भी मुझ पर बड़ी दया है |’ पदाधिकारीयो ने कहा – ‘हम तो आपके सेवक है,आपकी दया चाहते है |’ बालक बोला – ‘आप ऐसा कहकर मुझे लज्जित न कीजिये | मैं तो आपका सेवक हूँ | महाराजा साहब की मुझ पर दया है इसको मैं अच्छी तरह जानता हूँ |’ पदाधिकारीयो के कहा – ‘आप जो जानते है, उससे कही बहुत अधिक उनकी दया है |’ क्षत्रिय बालक ने पुछा – ‘क्या महाराजा साहब ने मेरे विवाह का प्रबंध कर दिया हैं?’ तब उन्होंने कहा –‘विवाह का प्रबंध ही नहीं, महाराजा साहब की तो आप पर अतिशय दया हैं |’ बालक ने पुन: पूछा –‘क्या महाराजा साहब ने मुझको दो-चार गावों की जागीरदारी दे दी हैं ?’ पदाधिकारीयो ने कहा –‘वह तो कुछ नहीं,उनकी आप पर जो दया है, उनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते |’

      इसपर बालक ने निवेदन किया –‘उनकी मुझपर कैसी दया हैं, इसे आप ही कृपा करके बतलाईये|’उन्होंने कहा –‘आपको महाराजा साहब ने युवराज पद दे दिया है | इसलिए हम आपकी दया चाहते है |’ यह सुनकर क्षत्रिय बालक हर्ष में इतना मुग्ध हो गया उसे अपने आप का भी होश नहीं रहा |

   इस द्रष्टान्त को अध्यात्मविषय में यो घटाना चाहिये की भगवान ही ज्ञानी महापुरुष राजा है | श्रद्धालु साधक ही क्षत्रिय बालक है | उपदेश देने वाले गुरुजन ही माता-पिता है| सत्संगी साधकगण ही सहपाठी बालक है | भगवत्प्रेमी महापुरुष ही कौंसिल के सदस्य प्रधानाध्यापक है |

 

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६, संख्या ३, पन्ना न० ५६८, गीताप्रेस, गोरखपुर