|| श्री हरी ||
राज्य की और से बालक के
खान-पान का प्रबंध कराये जाने को लोकदृष्टि से अनुकूल परिस्थिती की प्राप्ति और घर
तुड़वाये जाने को लोक दृष्टि से प्रतिकूल परिस्थिति की प्राप्ति समझना चाहिये तथा
इन दोनों में बालक के द्वारा राजा का मंगल-विधान मानकर प्रसन्न होना समझना चाहिए | बालक का
राजा को सुहृद मानकर उन पर निर्भरता, श्रद्धा और विश्वास करना ही भगवत-शरणागति का साधन समझना
चाहिए |
इस दृष्टान्त से
हमलोगों को यह शिक्षा लेनी चाहिए की हमलोग अपने उपर भगवान की जितनी दया मानते है, भगवान की
दया उससे कही बहुत अधिक है | भगवान की हम पर इतनी दया है की उसकी हम कल्पना भी नहीं
कर सकते | यदि हम उस
दया को जान जाएँ तो उस क्षत्रिय बालक की भाँती हमे इतना आनंद और प्रसन्नता हो की
उसकी सीमा न रहे; फिर तो हमे अपने-आप का भी ज्ञान न रहे |
अत:हमे स्वेच्छा, अनिच्छा या
परेच्छा से जो कुछ भी प्राप्त हो, उसे भगवान का दयापूर्ण मंगलमय विधान समझ कर हर समय भगवान
को याद रखते हुए आनन्द में मग्न रहना चाहिये |
इस प्रकार भगवद्भक्ति के
साधन से साधक के चित में प्रसन्नता, रोमांच और अश्रुपात होने लगता हैं, ह्रदय
प्रफुल्लित होने लगता है, वाणी गदगद हो जाती है और कंठ अवरुद्ध हो जाता है | किन्तु
मनुष्य जब साधन करते-करते सिद्धावस्था में पहुँच जाता है – भगवान को पा लेता है, तब वह आमोद,प्रमोद,हर्ष आदि से उपर उठकर परम शान्ति और परम आनंद को प्राप्त
कर लेता है | जैसे कड़ाही
में घी ड़ाल कर उसमे कचोडी सेकी जाती है , वह जब तक कच्ची रहती है, तब तक तो उच्छलती है – उसमे विशेष क्रिया होती रहती है, किन्तु जब वह पकने लगती है, तब उसका उच्छलना कम हो जाता है और सर्वतः पक जाने पर तो
वह शान्त और स्थिर हो जाती है | इसी प्रकार साधना करते समय साधक में जब तक कचैई रहती है
तबतक वह साधन-विषयक आमोद-प्रमोद में उच्छलता रहता है एवं उसके रोमांच, अश्रुपात
और कंठावरोध होता रहता है; किन्तु जब साधन पकने लगता है, तब हर्षादि विकारों से रहित परम शान्त हो जाता है | फिर वह
परमात्मा में अचल और स्थिर होकर परम शान्ति एवं परमानन्द स्वरुप परमात्मा को
प्राप्त हो जाता है |
नारायण !
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
परम श्रधेय ब्रह्मलीन श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कल्याण अंक - वर्ष ८६, संख्या ३, पन्ना न० ५६८, गीताप्रेस, गोरखपुर
