※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

ध्यान की आवश्यकता-1

आज की शुभ तिथि – पंचांग 
पौष कृष्ण १३,वीरवार, वि० स० २०६९
   
      मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करना है | इसके लिए प्रधान साधन दो प्रकार के हैं – भेद मानकर और अभेद मानकर दोनों दो प्रकार के अधिकारियों के लिए हैं, फल दोनों का एक ही है | इसलिए यह बात नहीं कि अमुक ही करना चाहिए | अधिकांश में भेद का साधन ही सबके लिए उत्तम और सुगम समझा जाता है | अभेद में भी दो प्रकार हैं- एक ‘अहं ब्रहास्मि’ (बृ॰ १|४|१०) मैं ब्रह्म हूँ और दूसरा ‘वासुदेवः सर्वमिति’ (गीता ७|१९) सब वासुदेव ही है | इनमें दूसरा प्रकार श्रेष्ठ है | अपने में ब्रह्म का समावेश न करके भगवान् में ही सबका और अपना समावेश कर देना चाहिए |
    
      भेद और अभेद दोनों ही साधनों में ध्यान की सबसे अधिक आवश्यकता है | गीता, योगशास्त्र आदि सभी ग्रन्थ ध्यान की उपादेयता का वर्णन करते हैं | गीता में तो भगवान् ने ‘न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (६|२५) कहकर केवल भगवच्चिन्तन का ही उपदेश दिया है | परन्तु अधिकांश लोग कठिन समझकर या आलश्य के वश हो इस स्थिति पर पहुँचने के लिए प्रयत्न ही नहीं करते | ध्यान बहुत ही कम किया जाता है और इस विषय में लोग निरुत्साह-से हो रहे हैं | यह स्थिति बहुत शोचनीय है | मनुष्य को यह बात दृढ़ निश्चय के साथ मान लेनी चाहिए कि अभ्यास करने से ‘अचिन्त्य-अवस्था’ अवश्य होती है | जैसे लोग भ्रमवश निष्काम कर्म को असम्भव मानकर कह देते हैं कि स्वार्थरहित कर्म कभी हो ही नहीं सकता, वे इस बात को नहीं सोचते कि जब चेष्टा और अभ्यास करने से स्वार्थ या कामना कम होती है तब किसी समय उनका नाश भी जरुर हो सकता है | जो चीज घटती है वह नष्ट भी होती है, फिर निष्काम या निःस्वार्थ कर्म क्यों नहीं होंगे, इसी प्रकार जब एक-दो क्षण मन अचिन्त्य-दशा को प्राप्त होता है तो सदा के लिए भी वह हो ही सकता है | आवश्यकता है अभ्यास करने की |
    
     अभ्यास भी बड़े उत्साह और लगन के साथ करना चाहिए | क्षण-दो-क्षण के लिए संसार की ओर मन कम जाय, इतने में ही संतोष नहीं मानना चाहिए | मनको परमात्मा में पूर्ण एकाग्र करना चाहिए | जबतक कम-से-कम मिनट-दो-मिनट भी मन संसार को सर्वथा छोड़कर परमात्मा में पूर्णरूप से न लगे, तबतक ध्यान का अभ्यास छोड़कर आसन से नहीं उठना चाहिए | यदि दृढ़ निश्चय के साथ ध्यान का अभ्यास किया जाएगा तो अवश्य उन्नति होगी | संसार का चित्र मन से सर्वथा हटाने की चेष्टा करते-करते ऐसा स्वाभाविक अभ्यास बन सकता है कि फिर जिस समय आप चाहेंगे, उसी समय आपके मनमें संसार का अभाव हो जायेगा | परमात्मा के अतिरिक्त समस्त संसार का अभाव हो जाना ही अचिन्त्य-अवस्था है | इस अवस्था में ज्ञान की जागृति रहती है, इसलिए लय-अवस्था नहीं होती | सबको भुलाकर परमात्मा में मन न रहने से ही लय-अवस्था समझी जाती है | गीता में उस विज्ञानानंदघन परमात्मा को सर्वज्ञ, अनादि, सबका नियंता , सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म , सबका धारण-पोषण करनेवाला, अचिन्त्य-स्वरुप , प्रकाशरूप , अविद्या से परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन, ज्ञानस्वरूप बतलाया है | इस प्रकार जैसा स्वरुप समझ में आवे , उसी स्वरुप को पकड़कर  उसका ध्यान करना चाहिए | परमात्मा का यथार्थ स्वरुप तो इसका फल है | उसका वर्णन हो नहीं सकता | उस ज्ञानस्वरूप परमात्मा को ग्रहण करके सबको भुला देना चाहिए |........शेष अगले ब्लॉग में
जयदयाल गोयन्दका सेठजी ,तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से , गीताप्रेस गोरखपुर