आज की शुभ
तिथि – पंचांग
पौष कृष्ण, अमावस्या,
शुक्रवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से आगे.....
यदि ऐसा ध्यान समझ में
न आवे तो सूर्य के सदृश प्रकाश-स्वरुप का ध्यान करना चाहिए, सूर्य के सामने आँखें
मूँदनेपर सामान्यभाव से जो प्रकाश का पुंज प्रतीत हो, उसी को देखता रहे और सब कुछ
भुला दे | यह ब्रह्म के तेजस्वरूप का ध्यान है |
इस प्रकार न किया जाय तो भगवान् के जिस सगुण
स्वरुप में भक्ति हो उसी स्वरुप की मूर्ति मन के द्वारा स्थिर करके मनको उसके
अन्दर भलीभांति प्रवेश करा दें | उन भगवान् के सिवा संसार का और अपना कुछ भी ज्ञान
न रह जाय | जबतक ध्यान की ऐसी अनन्य
स्थिति न हो | (हो चाहे प्रारंभ में एक-दो मिनट ही) तबतक आसन से नहीं उठना
चाहिए | जब ऐसी स्थिति हो जायगी,तब चित्त में एक अपूर्व शांति और प्रफुल्लता होगी
, जिससे ध्यान में आप ही रूचि बढ़ जायगी | निराकार या साकार का- कोई-सा भी ध्यान हो
– होना चाहिए इस प्रकार का कि जिसमे संसार का और अपना बिलकुल पता ही न रहे | एक
इष्ट के सिवा सबका अत्यंत अभाव हो जाय | ध्यान की इसी स्थिति के लिए सब प्रकार के
साधन किये जाते हैं, सेवा,भजन आदि जो कुछ भी किया जाय, ध्यान की प्रगाढ़ स्थिति से
सब नीचे हैं | परमात्मा में अचल-अटल वृत्ति स्थिर हो जाना ही बहुत बड़ा लाभ है | इस
प्रकार के ध्यान की कामना रखने में भी कोई आपत्ति नहीं है | मुक्ति की कामना न
करके ऐसे अविचल ध्यान की कामना करना अच्छा है | जिसकी ऐसी नित्य स्थिति हो जाती है
वह दूसरों को भी ध्यान की युक्ति बता सकता है |
चेतन ज्ञानस्वरूप में मन के लय हो जानेपर
उसकी कैसी स्थिति होती है सो बतलायी नहीं जा सकती | वैसी अवस्था हुए बिना उसे कोई
नहीं समझ सकता | जैसे आजन्म ब्रह्मचारी स्त्री-संग की अवस्था को नहीं समझता | जब
नाशवान भोग की एक अवस्था नहीं समझायी जा सकती तब ब्राह्मी स्थिति को तो वाणी से
कोई कैसे समझा सकता है ? उस अवस्था को समझने के लिए वैसी अवस्था बनाने का प्रयत्न
करना चाहिए | सबको भूलने के बाद जो कुछ बच रहे उसी को अपना इष्ट ध्येय बनाकर उसका
ध्यान करना चाहिए | ऐसे ध्यान में ऊँचे-से-ऊँचा आनंद प्राप्त हो सकता है |
अपने अधिकांश लोगों का भक्तिमार्ग है और भक्ति
के मार्ग में ध्यान प्रधान है | भगवान् ने
जहाँ-जहाँ पर गीता में भक्ति की महिमा गायी है, वहाँ पर ध्यान का बड़ा महत्त्व
बतलाया है | किसी तरह भी भगवान् में मन को प्रवेश करा देना चाहिए | भगवान् ने उसी
को उत्तम बतलाया है | भगवान् कहते हैं—
योगिनामपि
सर्वेषाम् मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते
यो मां स मे युक्ततमो मतः || (गीता ६|४७)
मय्यावेश्य
मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते |
श्रद्धया
परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः || (गीता १२|२)
मय्येव मन
आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि
मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || (गीता १२|८)
‘हे अर्जुन
! सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमे लगे हुए अंतरात्मा से मुझको
निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |’
‘मुझमें
मनको एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ
श्रद्धा से युक्त हुए मुझ परमेश्वर को भजते हैं,
वे मुझको योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं |’
‘इसलिए तू
मुझमें मन को लगा, मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा
अर्थात् मुझको ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है |’
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि
पुस्तक कोड ६८३ , गीताप्रेस गोरखपुर