※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

ध्यान की आवश्यकता-2

आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष कृष्ण, अमावस्या, शुक्रवार, वि० स० २०६९
                      

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       यदि ऐसा ध्यान समझ में न आवे तो सूर्य के सदृश प्रकाश-स्वरुप का ध्यान करना चाहिए, सूर्य के सामने आँखें मूँदनेपर सामान्यभाव से जो प्रकाश का पुंज प्रतीत हो, उसी को देखता रहे और सब कुछ भुला दे | यह ब्रह्म के तेजस्वरूप का ध्यान है |

   इस प्रकार न किया जाय तो भगवान् के जिस सगुण स्वरुप में भक्ति हो उसी स्वरुप की मूर्ति मन के द्वारा स्थिर करके मनको उसके अन्दर भलीभांति प्रवेश करा दें | उन भगवान् के सिवा संसार का और अपना कुछ भी ज्ञान न रह जाय | जबतक ध्यान की ऐसी अनन्य  स्थिति न हो | (हो चाहे प्रारंभ में एक-दो मिनट ही) तबतक आसन से नहीं उठना चाहिए | जब ऐसी स्थिति हो जायगी,तब चित्त में एक अपूर्व शांति और प्रफुल्लता होगी , जिससे ध्यान में आप ही रूचि बढ़ जायगी | निराकार या साकार का- कोई-सा भी ध्यान हो – होना चाहिए इस प्रकार का कि जिसमे संसार का और अपना बिलकुल पता ही न रहे | एक इष्ट के सिवा सबका अत्यंत अभाव हो जाय | ध्यान की इसी स्थिति के लिए सब प्रकार के साधन किये जाते हैं, सेवा,भजन आदि जो कुछ भी किया जाय, ध्यान की प्रगाढ़ स्थिति से सब नीचे हैं | परमात्मा में अचल-अटल वृत्ति स्थिर हो जाना ही बहुत बड़ा लाभ है | इस प्रकार के ध्यान की कामना रखने में भी कोई आपत्ति नहीं है | मुक्ति की कामना न करके ऐसे अविचल ध्यान की कामना करना अच्छा है | जिसकी ऐसी नित्य स्थिति हो जाती है वह दूसरों को भी ध्यान की युक्ति बता सकता है |

    चेतन ज्ञानस्वरूप में मन के लय हो जानेपर उसकी कैसी स्थिति होती है सो बतलायी नहीं जा सकती | वैसी अवस्था हुए बिना उसे कोई नहीं समझ सकता | जैसे आजन्म ब्रह्मचारी स्त्री-संग की अवस्था को नहीं समझता | जब नाशवान भोग की एक अवस्था नहीं समझायी जा सकती तब ब्राह्मी स्थिति को तो वाणी से कोई कैसे समझा सकता है ? उस अवस्था को समझने के लिए वैसी अवस्था बनाने का प्रयत्न करना चाहिए | सबको भूलने के बाद जो कुछ बच रहे उसी को अपना इष्ट ध्येय बनाकर उसका ध्यान करना चाहिए | ऐसे ध्यान में ऊँचे-से-ऊँचा आनंद प्राप्त हो सकता है |

   अपने अधिकांश लोगों का भक्तिमार्ग है और भक्ति के मार्ग में ध्यान प्रधान  है | भगवान् ने जहाँ-जहाँ पर गीता में भक्ति की महिमा गायी है, वहाँ पर ध्यान का बड़ा महत्त्व बतलाया है | किसी तरह भी भगवान् में मन को प्रवेश करा देना चाहिए | भगवान् ने उसी को उत्तम बतलाया है | भगवान् कहते हैं—

योगिनामपि सर्वेषाम् मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || (गीता ६|४७)

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते |
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः || (गीता १२|२)

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || (गीता १२|८)

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमे लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |’

‘मुझमें मनको एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ परमेश्वर को भजते हैं,  वे मुझको योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं |’

‘इसलिए तू मुझमें मन को लगा, मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा अर्थात् मुझको ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है |’

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक कोड ६८३ , गीताप्रेस गोरखपुर