※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 13 जनवरी 2013

ब्रह्मचर्य -2- (सब प्रकार के मैथुन के त्याग का नाम ही ब्रह्मचर्य है | )


आज की शुभ तिथिपंचांग

पौष शुक्ल,द्वितया, रविवार, वि० स० २०६९
        

 सब प्रकार के मैथुन के त्याग का नाम ही ब्रह्मचर्य है | 

  
मैथुन के निम्नलिखित प्रकार शास्त्रों में कहे गये हैं—

(१)     स्मरण— किसी सुन्दर युवती स्त्री के रूप-लावण्य अथवा हाव, भाव, कटाक्ष एवं श्रृंगार का स्मरण करना, कुत्सित पुरुषों की कुत्सित क्रियाओं का स्मरण करना, अपने द्वारा पूर्व में घटी हुई मैथुन आदि क्रिया का स्मरण करना, भविष्य में किसी स्त्री के साथ मैथुन करने का संकल्प अथवा भावना करना, माला, चन्दन, इत्र, फुलेल, लवेंडर आदि कामोद्दीपक एवं श्रृंगार के पदार्थों का स्मरण करना, पूर्व में देखे हुए किसी सुन्दर स्त्री अथवा बालक के चित्र का अथवा अश्लील चित्र का स्मरण करना—ये सभी मानसिक मैथुन के अंतर्गत हैं | इनसे वीर्य का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूपमें नाश होता है और मनपर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है | मन ख़राब होने से आगे चलकर वैसी क्रिया भी घट सकती है | इसलिए सर्वांग में ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले को चाहिए कि वह उक्त सभी प्रकार के मानसिक मैथुन का त्याग कर दे, जिससे मनमें कामोद्दीपन हो ऐसा कोई संकल्प ही न करे और यदि हो जाय तो उसका तत्काल विवेक एवं विचार के द्वारा त्याग कर दे |


(२)     श्रवण— गंदे तथा कामोद्दीपक एवं श्रृंगार-रस के गानों को सुनना, श्रृंगार-रसका गद्य-पद्यात्मक वर्णन सुनना, स्त्रियों के रूप-लावण्य तथा अंगो का वर्णन सुनना, उनके हाव, भाव, कटाक्ष का वर्णन सुनना, कामविषयक बातें सुनना आदि—ये सभी श्रवणरूप मैथुन के अंतर्गत हैं | ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह उक्त सभी प्रकार के श्रवण का त्याग कर दे |

(३)     कीर्तन— अश्लील बातों का कथन, श्रृंगार-रसका वर्णन, स्त्रियों के रूप–लावण्य, यौवन एवं श्रृंगार की प्रशंसा तथा उनके हाव, भाव, कटाक्ष आदि का वर्णन, विलासिता का वर्णन, कामोद्दीपक अथवा गंदे गीत गाना तथा ऐसे साहित्य को स्वयं पढ़ना और दूसरों को सुनाना तथा कथा आदि में ऐसे प्रसंगों को विस्तार के साथ कहना—ये सभी कीर्तनरूप मैथुन के अंतर्गत हैं | ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह इन सबका त्याग कर दे |

(४)     प्रेक्षण— स्त्रियों के रूप-लावण्य, श्रृंगार तथा उनके अंगों की रचना को देखना, किसी सुंदरी स्त्री अथवा सुन्दर बालक के रूप या चित्र को देखना, नाटक-सिनेमा देखना, कामोद्दीपक वस्तुओं तथा सजावट के सामान को देखना, दर्पण आदि में अपना रूप तथा श्रृंगार देखना—यह सभी प्रेक्षण रूप मैथुन के अंतर्गत हैं | ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह जान-बूझकर तो इन वस्तुओं को देखे ही नहीं; यदि भूलसे इनपर दृष्टि पड़ जाय तो इन्हें स्वप्नवत, मायामय, नाशवान एवं दुःखरूप समझकर तुरंत इनपर से दृष्टि को हटा ले, दृष्टि को इन पर ठहरने न दे |

(५)     केलि— स्त्रियों के साथ हँसी-मजाक करना, नाचना-गाना, आमोद-प्रमोद के लिए क्लब वगैरह में जाना, जलविहार करना, फाग खेलना, गन्दी चेष्टाएँ करना, स्त्रीसंग करना आदि—ये सभी केलिरूप मैथुन के अंतर्गत हैं | ब्रह्मचारी को इन सबका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए |

(६)     श्रृंगार— अपनेको सुन्दर दिखलाने के लिए बाल सँवारना, कंघी करना, काकुल रखना, शरीर को वस्त्राभूषणादि से सजाना, इत्र, फुलेल, लवेंडर आदि का व्यवहार करना, फूलों की माला धारण करना, अंगराग लगाना, सुरमा लगाना, उबटन करना, साबुन-तेल लगाना, पाउडर लगाना, दाँतों में मिस्सी लगाना, दाँतों में सोना जड़वाना, शौक के लिए बिना आवश्यकता के चश्मा लगाना, होठ लाल करने के लिए पान खाना—यह सभी श्रृंगार के अंतर्गत है | दूसरों के चित्त को आकर्षण करने के उद्देश्य से किया हुआ यह सभी श्रृंगार कामोद्दीपक है, अतएव मैथुन का अंग होने के कारण ब्रह्मचारी के लिए सर्वथा त्याज्य है | कुमारी कन्याओं, बालकों, विधवाओं, सन्यासियों एवं वानप्रस्थों को तो उक्त सभी प्रकार के श्रृंगार से सर्वथा बचना चाहिए | विवाहित स्त्री-पुरुषों को भी ऋतुकाल में सहवास के समय के अतिरिक्त और समय में इन सभी श्रृंगारों से यथासम्भव बचना चाहिए |


(७)     गुह्यभाषण— स्त्रियों के साथ एकांत में अश्लील बातें करना, उनके रूप-लावण्य , यौवन एवं श्रृंगार की प्रशंसा करना, हँसी-मजाक करना—यह सभी गुह्यभाषणरूप मैथुन के अंतर्गत है, अतएव ब्रह्मचारी के लिए सर्वथा त्याज्य है |

(८)     स्पर्श— कामबुद्धि से किसी स्त्री अथवा बालकका स्पर्श करना, चुम्बन करना, आलिंगन करना, कामोद्दीपक पदार्थो का स्पर्श करना आदि यह सभी स्पर्शरूप मैथुन के अंतर्गत है, अतएव ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करनेवाले के लिए त्याज्य है |

उपर्युक्त बातें पुरुषों को लक्ष्य में रखकर ही कही गयी हैं | स्त्रियों को भी पुरुषों के सम्बन्ध में यही बात समझनी चाहिए | पुरुषों को परस्त्री के साथ और स्त्रियों को परपुरुष के साथ तो इन आठों प्रकार के मैथुन का त्याग हर हालत में करना ही चाहिए, ऐसा न करनेवाले महान पाप के भागी होते हैं और इस लोक में तथा परलोक में महान दुःख भोगते हैं | गृहस्थों को अपनी विवाहिता पत्नी के साथ भी ऋतुकाल की अनिंदित रात्रियों को छोड़कर शेष समय में उक्त आठों प्रकार के मैथुन से बचना चाहिए | ऐसा करनेवाले गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी हैं | बाकी तीन आश्रमवालों तथा विधवा स्त्रियों के लिए तो सभी अवस्थाओं में उक्त आठों प्रकार के मैथुन का त्याग सर्वथा अनिवार्य है |

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक कोड ६८३ , गीताप्रेस गोरखपुर