※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 7 जनवरी 2013

शीघ्र कल्याण कैसे हो ?-7-


आज की शुभ तिथि – पंचांग
                                               पौष कृष्ण १०, सोमवार, वि० स० २०६९
                                                        
अब संध्योपासना के विषय में कुछ लिखा जाता है | श्रद्धा, प्रेम और सत्कारपूर्वक की हुई संध्योपासना से सब पापो का नाश होकर आत्मा का कल्याण हो सकता है | सब द्विजातियो को प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल की संध्या श्रद्धा, प्रेम और सत्कारपूर्वक करनी चाहिये | तीनकाल की ना कर सके तो प्रात:-सांय संध्या तो अवश्य करनी चाहिये | द्विज होकर जो संध्या नहीं करता वह प्रायश्चित का भागी और शुद्र के समान समझा जाता है | द्विजो को संध्या का त्याग कभी नहीं करना चाहिये | रात्री के अंत और दिन के आरम्भ में जो ईश्वरोपासना की जाती है वह प्रात:संध्या और दिन के अन्त में तथा रात्रि के आरम्भ में जो संध्या की जाती है वह सांय-संध्योपासना  कहलाती है | विधिपूर्वक ठीक समय पर करना ही सत्कारपूर्वक है | जैसे समय पर बोया हुआ बीज ही लाभप्रद होता है, उसी प्रकार ठीक समय पर की हुई संध्योपासना ही उत्तम फल देने वाली होती है | असमय में खेत में बोया हुआ अनाज प्रथम तो उगता नहीं है और यदि उग आया तो विशेष फल दायक नहीं होता, अत: हमे ठीक समय पर विधिसहित संध्या करने के लिये तत्पर होना चाहिये | प्रातकाल: की संध्या तारों के रहते करना उत्तम, तारो के चिप जाने पर माध्यम और सूर्योदय के अनन्तर कनिस्ठ मानी गई है –

उतमा तारकोपेता मध्यमा लुप्त्तारका |
कनिष्ठा सूर्य सहिता प्रात:संध्या त्रिधा स्मरता ||

 यदि यह कहा जाये की इसमें सूर्य की प्रधानता क्यों मानी गयी, तो इसका उतर यह है की प्रगट देवताओ में सूर्य से बधकर कोई देव नहीं और सृष्टीके आदि में भगवान ही सूर्यरूप से प्रगट होते है | इसलिये सूर्य की उपासना इश्वर की ही उपासना है | ‘समय पर संध्या करने का महत्व इतना अधिक क्यों है’ – इसके उत्तर में निवेदन है की सूर्य सबसे बढकर महान पुरुष है | जब वह हमारे देश में आते है तो उनका सत्कार करना हमारा परम कर्तव्य है | वह सत्कार ठीक समय पर किये जानेपर ही सर्वश्रेष्ट  समझा जाता है | जैसे कोई महात्मा हमारे हित केलिए हमारे यहाँ आते है  तो उनके सत्कारार्थ बहुत-से भाई स्टेशन पर जाते है | कई तो ट्रेन के पहुचनें के पूर्व ही उनके स्वागतार्थ सब प्रकार का प्रबन्ध करके ट्रेन की प्रतीक्षा करते रहते है | गाडी से उतरते ही बड़े प्रेम से पुष्प-माला और प्रणाम आदि के द्वारा उनका सत्कार करते है | दुसरे कितने ही भाई उनके पहुचने के समय प्लेटफार्म पर पह्लेवालो के साथ सम्मिलित होकर स्वागत के कार्य में योग देने लगते है | तीसरे कितने ही भाई उनके नियत स्थान पर पहुच जाने के दो घन्टे बाद अभिवादानादी  द्वारा उनका सत्कार करते है | इन तीनो में प्रथम श्रेणी वाले का दिया हुआ आदर उतम, द्वितीय वालो का मध्यम और तृतीय वाले का कनिष्क  समझा जाता है | इसी प्रकार प्रात:काल की संध्या के समय में सूर्य भगवान का किया हुआ सत्कार समझना चाहिये |

 श्री मन्न नारायण नारायण नारायण...श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.....

शेष अगले ब्लॉग में.......
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर